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'मूकमाटी'- अनुशीलन
प्रो. (डॉ.) रतनचन्द्र जैन "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” अर्थात् जो उक्ति सहृदय को भावमग्न कर दे, मन को छू ले, हृदय को आन्दोलित कर दे, उसे काव्य कहते हैं। काव्य की यह परिभाषा साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने की है, जो अत्यन्त सरल और सटीक है।
तात्पर्य यह कि दार्शनिक और आध्यात्मिक सिद्धान्तों की मीमांसा, नैतिक और धार्मिक उपदेश, पहेलियों जैसा चमत्कार उत्पन्न करनेवाली शब्दलीला या व्याख्या, शब्दों और वर्णों का विचित्र विन्यास तथा अलंकारों की शुष्क छटा, इन सब का नाम काव्य नहीं है। काव्य तो भावमग्न या रसविभोर कर देने वाली उक्ति का नाम है।
ऐसी उक्ति की रचना तब होती है जब मानव चरित, मानव आदर्श एवं जगत् के वैचित्र्य को कलात्मक रीति से प्रस्तुत किया जाता है । कलात्मक रीति का प्राण है भाषा की लाक्षणिकता एवं व्यंजकता । भाषा को लाक्षणिक एवं व्यंजक बनाने के उपाय हैं-अन्योक्ति, प्रतीक विधान, उपचारवक्रता, अलंकार योजना, बिम्ब योजना, शब्दों का सन्दर्भ विशेष में व्यंजनामय गुम्फन आदि । शब्दसौष्ठव एवं लयात्मकता भी कलात्मक रीति के अंग हैं । इन सबको आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति नाम दिया है । कलात्मक अभिव्यंजना-प्रकार में ही सौन्दर्य होता है । सुन्दर कथनप्रकार का नाम ही काव्यकला है । रमणीय कथनप्रकार में ढला कथ्य काव्य कहलाता है। “रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यम्" (पण्डितराज जगन्नाथ). "सारभतो ह्यर्थः स्वशब्दानभिधेयत्वेन प्रकाशित: सुतरामेव शोभामावहति" (ध्वन्यालोक/ उद्योत, ४)-ये उक्तियाँ इसी तथ्य की पुष्टि करती हैं।
विषय हो मानव चरित, मानव आदर्श या जगत्स्वभाव तथा अभिव्यंजना हो कलात्मक तभी काव्य जन्म लेता है। इनमें से एक का भी अभाव हुआ तो काव्य का अवतार न होगा । विषय मानव चरित, मानव आदर्श या जगत्स्वभाव हुआ, किन्तु अभिव्यंजना कलात्मक न हुई तो वह शास्त्र, इतिहास या आचारसंहिता बन जाएगा, काव्य न होगा। इसके विपरीत अभिव्यंजना कलात्मक हुई और विषय मानव चरित, मानव आदर्श या जगत्स्वभाव न हुआ तो प्रहेलिका बन जाएगी, उसमें काव्यत्व न आ पाएगा।
'मूकमाटी' के काव्यत्व को इसी कसौटी पर कस कर परखना होगा। इस कसौटी पर कसने से उसमें काव्य के अनेक सुन्दर उदाहरण मिलते हैं, किन्तु उसमें काव्यत्व से दूर ले जाने वाले अनेक तथ्यों का भी साक्षात्कार होता है। उनके कारण यह कुछ ही अंश में काव्य है, अधिकांशत: विभिन्न शास्त्रों का संगम है । दर्शनशास्त्र, अध्यात्मशास्त्र, धर्मशास्त्र, मीमांसाशास्त्र, निरुक्तिशास्त्र, भाषाशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, गणितशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, मुक्ताशास्त्र आदि अनेक शास्त्र इसमें उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त इसमें प्रहेलिकाएँ भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं। ये शास्त्र ज्ञानवर्धक हैं, किन्त रसात्मक न होने से काव्य नहीं कहला सकते।
___ सन्त कवि ने स्वयं स्पष्ट किया है कि उन्होंने प्रस्तुत काव्य की रचना कार्यसिद्धि में निमित्त के महत्त्व, ईश्वर के द्वारा सृष्टिरचना की असम्भाव्यता आदि दार्शनिक सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु की है । मूकमाटी का कुम्भकार के निमित्त से जलधारण और जलतारण की क्षमता से युक्त सुन्दर घट का रूप प्राप्त कर लेने का तथ्य निमित्त के महत्त्व को दर्शन के लिए ही काव्य का विषय बनाया गया है । दार्शनिक सिद्धान्तों के उद्घाटन की पद्धति भी मीमांसात्मक एवं देशनात्मक है, न कि व्यंजनात्मक । इससे स्पष्ट है कि सन्तकवि का उद्देश्य भी काव्य के माध्यम से दार्शनिक एवं आध्यात्मिक तथ्यों के उद्घाटक शास्त्र का सृजन करना था।
कृति के प्रस्तवन-लेखक श्री लक्ष्मीचन्द्रजी जैन की आलोचक दृष्टि को भी इसमें काव्य की अपेक्षा शास्त्र के