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मूकमाटी-मीमांसा :: 93
शम्य, अदेसखभाव, पाँव नता, बुदबुदी, समिटशीला आदि ये शब्द अजनबी हैं। पाठकों के लिए अपरिचित होने से ये शब्द कवि के भावों का सम्प्रेषण नहीं कर पाते, उलटे दीवार बन कर उन्हें पाठक तक आने से रोकते हैं जिससे कवि का उद्देश्य ही विफल हो जाता है।
कवि को स्वप्रयुक्त शब्दों की दुरूहता का भान है, इसलिए उनके अर्थ को कई जगह स्पष्ट करने की आवश्यकता पड़ी है, जैसे:
० "उपधि यानी/उपकरण - उपकारक है ना!
उपाधि यानी/परिग्रह - अपकारक है ना!" (पृ. ८६) 0 “आँखों से अश्रु नहीं, असु/यानी, प्राण निकलने को हैं।” (पृ. २७९) 0 "जलधि ने जड़-धी का,/बुद्धि-हीनता का, परिचय दिया है।” (पृ. १८९) ।
0 "जल को मुक्ता के रूप में ढालने में/शुक्तिका-सीप कारण है।" (पृ. १९३) इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि कवि ने अनुप्रास मोह के कारण ही दुरूह शब्दों का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं कवि को अपने पूरे कथन का ही आशय स्पष्ट करना पड़ा है :
० “अब ये प्राण/जल-पान बिन/सम्मान नहीं कर पायेंगे किसी का।
यानी,/इनका प्रयाण निश्चित है।" (पृ. २९२) “हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है/और/सहित का भाव ही साहित्य बाना है,/अर्थ यह हुआ कि/जिस के अवलोकन से
सुख का समुद्भव - सम्पादन हो/सही साहित्य वही है।” (पृ. १११) कवि को अपने ही शब्दों का अर्थ खोलने तथा कथन का आशय स्पष्ट करने की आवश्यकता का आ पड़ना बतलाता है कि भाषा अनेक स्थलों पर दुरूह हो गई है।
भाषा में कई जगह सामासिकता और सूत्रात्मकता है, जो भावों के प्रस्फुटित होने में बाधक है । निम्नवाक्य इसके उदाहरण हैं :
0 "नति नमन-शीलता जगी/यति यजन-शीलता जगी।" (पृ. २०९) 0 "शुक्ला-पद्मा-पीता-लेश्या-धरी।" (पृ. २०९) 0 “वन-उपवन-विचरण-धर्मा/वसन्त-वर्षा-तुषार-धर्मा।" (पृ. २५७-२५८)
0 "रति-पति-प्रतिकूला-मतिवाली/पति-मति-अनुकूला-गतिवाली।” (पृ. १९९) अनावश्यक शब्दों का बोझ : कहीं अकारण, कहीं अनुप्रास मोह के कारण अनावश्यक शब्दों के प्रयोग या शब्द की पुनरुक्ति से भाषा बोझिल बन गई है। 'वह' शब्द का अनावश्यक रूप से बहुशः प्रयोग हुआ है :
- "करुणाई वह/छलक आई है।" (पृ. १२८) - "अरुणाई वह/झलक आई है।" (पृ. १२८)
० "चरणाई वह/पुलक आई है।" (पृ. १२९) इन सभी उदाहरणों में 'वह' शब्द अनावश्यक है। निम्नलिखित वाक्यों में रेखांकित पदों का प्रयोग अनावश्यक