________________
126 :: मूकमाटी-मीमांसा
शैथिल्य दृष्टिगोचर नहीं होता, यह इसकी अन्यतम उपलब्धि है । 'मूकमाटी' का वस्तु पक्ष सबल एवं प्रभावशाली है। अपनी गम्भीरता, नवीनता, सहजता, रसमयता एवं चिन्तन के विस्तृत धरातल के कारण यह कृति बरबस सभी को अपनी ओर आकृष्ट करती है । अध्यात्म, दर्शन तथा सांस्कृतिक आधारभूमि पर अवस्थित होने के कारण सामान्य सहृदयों को कठिनाई की अनुभूति हो सकती है किन्तु उसमें रस-सागर निरन्तर हिल्लोलित हो रहा है । सुधीजन इस आनन्द में निमग्न होकर अपनी ज्ञान-पिपासा को शान्तकर सन्तुष्ट होते हैं। 'अनबूड़े बूड़े, तरे जे बूड़े सब अंग' की उक्ति अक्षरश: सार्थक सिद्ध होती है । इस कृति का रचयिता एक साधक है, सन्त है, साधना की उदात्त भावभूमि पर अनवरत विचरण करने वाला है, अत: उसके उद्गार असाधारण एवं ज्ञान गरिमा से युक्त हैं। कवित्व एवं आत्म संगीत का समन्वय मानव मात्र को मुक्ति-पथ पर ले जाने का हेतु बनता है । इस कृति की सर्वोत्कृष्टता इसी से प्रमाणित होती
है।
'मूकमाटी' में 'माटी' का सुविस्तृत रूपक बाँधा गया है। माटी अकिंचन, पद-दलित, उपेक्षित और सर्वसुलभ होने के कारण महत्त्वहीन-सी है । रज-जिसका प्रत्येक कण अपनी अस्मिता का परिचय प्रतिक्षण मानव को प्रदान करता है कि उसके शरीर निर्माण में उसकी भी विशिष्ट भागीदारी है, उसी माटी से उत्पन्न है । मानव इस ओर से निश्चिन्त-सा लगता है, क्योंकि माटी को वह अनुपयोगी मान बैठा है। आधुनिक चकाचौंध के वातावरण में माटी' की चर्चा करके वह अपने को 'दकियानूसी' अथवा 'परम्परावादी' नहीं सिद्ध करना चाहता, वह तो 'चाँद-सितारों' की कोमल कल्पनाओं में ही खोकर अपने व्यक्तित्व को सार्थक बनाना चाहता है । यह उसका भ्रम एवं अहंकारी दृष्टिकोण है। यही उसके कष्टों एवं विनाश का मूल है। कविप्रवर ने 'माटी' को कंकरीली-पथरीली स्थितियों से युक्त बताकर भी उसकी महिमा को उजागर किया है, क्योंकि कुम्हार इसी माटी को अपने श्रम से चिकनी, मुलायम और सुन्दर बनाता है । उस पर उसका किया गया श्रम व्यर्थ नहीं जाता। सुन्दर घट का निर्माण कुम्हार की लगन, निष्ठा और समर्पित भावना का प्रतीक है। कर्म और धर्म दोनों के सामंजस्य से व्यक्ति अनेक दुर्लभ वस्तुओं को सुलभ कर सकता है। उसका लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। कुम्हार अपने कर्म-धर्म से ही अनपढ़, कंकरीली-पथरीली और चट्टान जैसी मिट्टी से मोहक घड़े का निर्माण करता है । यह घड़ा मंगल का प्रतीक है। घड़े में 'स्वस्तिक' का चिह्न हमारी सांस्कृतिक क्रियाशीलता एवं मानवीयता का प्रतीक है। 'मूकमाटी' की माटी की यही वेदना है-तिरस्कार, उपेक्षा, पददलन । इसके पश्चात् भी कवि द्वारा मुक्ति-सम्भावना से सम्पृक्त करने का प्रयास, उसकी अमरवाणी है । इसमें किंचित् भी अतिरंजना नहीं है कि माटी की उपेक्षा जीवन को विनाश पथ पर ले जाती है। माटी की ऊर्जा एवं उसकी शक्ति को चुनौती नहीं दी जा सकती । वह अजेय एवं कालातीत है।
प्रकृति के विस्तृत आँगन में माटी की पर्वत की उत्तुंग चोटियों से लेकर महासागर की अतल गहराई तक उपस्थिति है। माटी सर्वशक्तिमान् है । लगता है सागर से पर्वत तक माटी का अखण्ड साम्राज्य है । वह अपनी अस्मिता को दिग्दिगन्त तक फैलाए हुए जगती में हो रहे कार्यों की मूक साक्षी है। इस धरित्री पर जो कुछ सुन्दर, आकर्षक, प्रिय और उत्तम है, वह माटी के कारण ही है । इसके बावजूद माटी की उपेक्षा और तिरस्कार है । सन्तवाणी ने इस माटी की महिमा का गायन और उसकी ऊर्जस्विता का प्रतिपादन इस विशिष्ट काव्य कृति में किया है । माटी और कुम्भकार के पारस्परिक सम्बन्धों की ओर इंगन इस बात का प्रतीक है कि मिट्टी की परख मात्र कुम्भकार को ही है । कुम्भकार रचयिता है, निर्माता है और स्रष्टा है । माटी रचना का आधार है, स्पन्दन का स्रोत है और रसमयता का अक्षय भण्डार है। सौन्दर्य, शृंगार एवं मधुरिमा की त्रिवेणी है । यह त्रिवेणी जिसका दरस, परस या पान सांसारिक माया-मोह से मुक्त करता है । अमृत तत्त्व से भरपूर माटी का स्पर्श जीवन को परम शान्ति, सुख एवं मोक्ष प्रदान करने में समर्थ है । धन्य है 'माटी' और उसकी महिमा ।