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मूकमाटी-मीमांसा :: 127
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'मूकमाटी' महाकाव्य की परिधि को स्पर्श करता है। महाकाव्यात्मकता और उसका वैशिष्ट्य सर्वत्र विद्यमान है । रचनाकार ने इस कृति को चार सर्गों (खण्डों) में विभाजित किया है - प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण - लाभ; द्वितीय खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं: बोध सो शोध नहीं; तीसरा खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन'; चतुर्थ खण्ड 'अग्नि परीक्षा : चाँदी-सी राख'। वैसे महाकाव्य की प्रचलित परम्परा के अनुसार इसमें खण्डों की संख्या कम है किन्तु आधुनिक रचना प्रवृत्तियों के आधार पर इसे महाकाव्य की श्रेणी में रखना समीचीन होगा। प्रकृति-चित्रण, धरती की विस्तृत हरीतिमा, नयनाभिराम, मोहक दृश्यावलियाँ आदि जीवन की धारा को गहनता से प्रभावित करती हैं। कथा सूत्र 'माटी' के आसपास केन्द्रित है । माटी और उसका रचयिता ही इसकी कथा को गति प्रदान करते हैं । रचनाकार ने एक रूप तैयार करके अपने कथानक को अति विस्तार प्रदान किया है। माटी रूपी घट को रूपी गुरु 'कुम्भकार अपने कर्मरूपी हाथों से निर्मित करता है । कंकर - पत्थर रूपी अज्ञान को हटाकर सुन्दरता रूपी ज्ञानप्रकाश भरता है । यह घट मंगलकारी है, शुभत्व तथा पवित्रता से युक्त है । इस घट के प्रति सहज ही श्रद्धा जागृत होती है। यह मंगल - भावना मुक्तिप्रदाता है।
प्रथम खण्ड में माटी की व्यथा का सहज ही उद्घाटन कितना सजीव एवं मार्मिक है :
" स्वयं पतिता हूँ / और पातिता हूँ औरों से / अधम पापियों से पद-दलिता हूँ माँ ! / सुख - मुक्ता हूँ / दुःख - युक्ता हूँ तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ ! " (पृ. ४)
यह माटी का आत्म कथन है। इसमें जहाँ एक ओर मानवीकरण का आरोप है वहीं पर नाटकीयता का स्वर भी प्राप्त होता है । जिस प्रकार कोई पात्र रंगमंच पर अवतरित होकर स्वयं अपना परिचय देता है तो वह कितना जानापहचाना और जीवन्त प्रतीत होता है । उसका लगाव अतिशीघ्र अन्यों से होता है, उसी प्रकार माटी का परिचय असाधारण रूप से सभी को प्रभावित करता है । मात्र परिचय से ही नहीं, माटी की वेदना भी अन्तस् को द्रवित करती
है :
"यातनायें पीड़ायें ये ! / कितनी तरह की वेदनायें / कितनी और " आगे कब तक पता नहीं / इनका छोर है या नहीं !
श्वास-श्वास पर/नासिका बन्द कर / आर्त - घुली घूँट / बस पीती ही आ रही हूँ / और / इस घटना से कहीं / दूसरे दु:खित न हों
मुख पर घूँघट लाती हूँ / घुटन छुपाती - छुपाती / घूँट / पीती ही जा रही हूँ, केवल कहने को / जीती ही आ रही हूँ।” (पृ. ४-५)
माटी की इस पीड़ा, वेदना और दु:खानुभूति में उसकी निरीहता एवं उपेक्षिता का भाव सन्निहित है किन्तु वास्तव में उसकी विनम्रता सराहनीय है । वह अपनी अदम्य इच्छा शक्ति को पराजित नहीं होने देती वरन् अपनी जिजीविषा को जागृत किए रहती है। संघर्ष एवं गतिशीलता उसकी प्रकृति में है । जिस प्रकार दृढ़ निश्चयी शिष्य अपनी लगनशीलता एवं दृढ़ निश्चय से गुरु की कृपा प्राप्त कर ज्ञान प्राप्त करता है, सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, पाप-पुण्य में भेद करके अपने कर्तव्य पथ पर चलकर लक्ष्य प्राप्त करता है, उसी प्रकार यह माटी भी प्रकृति के परिवेश में रहते हुए भी अपनी अस्मिता तथा गतिशीलता के प्रति सतत जागरूक है । उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति से प्रभावित होकर धरती माँ उसकी प्रशंसा करती है :