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116 :: मूकमाटी-मीमांसा
जैन परम्परा के कवियों / आचार्यों ने रामायण या महाभारत की विषय-वस्तु पर रचना की है पर वे अमूल्यांकित, अवहेलित और उपेक्षित ही रहे हैं। यह हिन्दी आलोचना का दुर्भाग्यपूर्ण एकान्तवाद है ।
प्रस्तुत कृति की मैं रूद, प्राध्यापकीय रीति से समीक्षा नहीं कर रहा हूँ, न जैन रचनाकारों के प्रति अतिरिक्त आदर व्यक्त करके उन्हें तुलसी, कबीर से श्रेष्ठ ठहराना मेरा उद्देश्य है । मेरा मन्तव्य यह है कि 'मूकमाटी' जैसी अलौकिक, कालजयी कविता मूल्यांकन के अभाव में काल - सागर में विलुप्त न हो जाय, क्योंकि हिन्दुवाद या छद्म प्रगतिशीलता दोनों ही काव्यालोचन के सही प्रतिमान नहीं बन सकते ।
साहित्य ' सहित ' की भावना से अनुप्राणित होता है। आचार्य विद्यासागर के काव्य में घोषित रूप से कहीं भी इस 'सहित' या 'लोकमंगल' को नारा बनाकर नहीं उछाला है । वे मूलतः अन्तर्मुखी कवि हैं, किन्तु उनका काव्य ‘अन्तर्मुख' से उद्भूत व्यापक सृष्टि में व्याप्त मोह, अवसाद, लोभ, आतंक आदि को समाप्त करके व्यक्ति के सुधार को महत्त्व देकर समाज में क्रान्ति लाना चाहता है।
माटी, कुम्भ, कुम्भकार आदि प्रतीक रूप में ही हैं। यह प्रतीकात्मकता ही इसे काव्य बनाती है । यहाँ हमें इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि “जैन दर्शन, नास्तिक दर्शनों को सही दिशा - बोध देने वाला एक आस्तिक-दर्शन है।” यद्यपि यह कथन सौ प्रतिशत सत्य है । किन्तु 'मूकमाटी' की समीक्षा चूँकि मैं स्वतन्त्र बुद्धि से कर रहा हूँ, अत: मेरा मन्तव्य यहाँ एक श्रेष्ठ काव्य के गुणों / सीमाओं को उजागर करना ही है ।
'सावित्री' महाकाव्य की तरह ही 'मूकमाटी' में कोई ठोस कथा - आधार खोजना लहरों पर तैरने के समान होगा । हम यहाँ 'मूकमाटी' के चार खण्डों में व्याप्त कविता-सूत्रों को पकड़ कर, उनकी गुणवत्ता पर विचार करेंगे। क्योंकि कविता सिर्फ कविता होती है और सच्ची कविता सीधे हृदय आन्दोलित करती है, तथा विचार करने के लिए हमें विवश करती है। निम्न कविता पंक्तियाँ विशुद्ध काव्य हैं।
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" सरिता - तट की माटी / अपना हृदय खोलती है माँ धरती के सम्मुख !” (पृ. ४)
"तुम स्वर्ण हो / उबलते हो झट से / माटी स्वर्ण नहीं है
पर / स्वर्ण को उगलती अवश्य, / तुम माटी के उगाल हो !/ आज तक,
न सुना, न देखा / और न ही पढ़ा, कि / स्वर्ण में बोया गया बीज
अंकुरित होकर / फूला - फला, लहलहाया हो / पौधा बनकर ।” (पृ. ३६४-३६५)
"काठियावाड़ के युवा घोड़ों की पूँछ - सी / ऊपर की ओर उठी मानातिरेक से तनी / जिनकी काली काली मूँछें हैं ।" (पृ. ४२८)
• जिस तरह "एक अखण्ड ज्ञान सीतावर” (तुलसी) और “तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है" (फैज़) "हम हुए, तुम हुए कि मीर हुए" (मीर) जैसी काव्य पंक्तियाँ अत्यन्त सहज, सीधी, सार्थक हैं और ज्ञानाडम्बर और अलंकारों के बिना भी अपना सम्यक् प्रभाव छोड़ने में कामयाब होती हैं उसी तरह आचार्य विद्यासागर की 'मूकमाटी' में कई ऐसी पंक्तियाँ हैं, जो कवि को सिर्फ कवि प्रमाणित करती हैं-न मुनि, न सन्त, न आचार्य । यही वह ऊँचाई है, कवि की ऊँचाई, जहाँ से संसार, सम्प्रदाय, धर्म, राजनीति, महत्त्वाकांक्षाएँ - सब बौनी दिखाई देती हैं ।
माना कि कवि उपदेशक नहीं होता, किन्तु वह कोरा द्रष्टा, स्रष्टा या प्रवक्ता मात्र भी नहीं होता। वह अपनी फक्कड़, मस्तीभरी धुन में Intution (स्वयंप्रज्ञा) के आधार पर जो कुछ लिख जाता है, वह निर्झर से झरती हुई धरा के