________________
नई शैली और नए भावबोध का महाकाव्य : 'मूकमाटी'
देवर्षि कलानाथ शास्त्री मुनि श्री आचार्य विद्यासागर विरचित 'मूकमाटी' महाकाव्य हिन्दी में उन इने-गिने महाकाव्यों की परम्परा में एक बहुत महत्त्वपूर्ण कड़ी जोड़ता है जो इस युग में नई शैली और नए भाव बोध के साथ लिखे जा रहे हैं। मुक्त शैली में लिखा हुआ यह महाकाव्य रचयिता के गहन चिन्तन और जीवन के प्रति दार्शनिक अन्तर्दृष्टि का परिचायक है। विभिन्न विषयों पर कवि की भावनाओं का मुक्त चिन्तन के रूप में गुम्फन करने वाला यह महाकाव्य यद्यपि चार खण्डों में विभाजित है तथापि किसी कथा सूत्र के बन्धन में बँधा हुआ नहीं है । मूकमाटी को प्रतीक बनाकर कवि ने विभिन्न भावनाओं को बड़ी सटीक अभिव्यक्ति दी है। धरती को माता और माटी को बेटी मानने का प्रतीक वेदकाल से चला आ रहा है। प्रकृति और पुरुष का युग्म भी प्राचीन प्रतीक है। कुम्भकार को निर्माता के रूप में देखना भी भारतीय संस्कृति की परम्परा में है। इस परम्परा को अनूठे ढंग से अभिव्यक्त करते हुए कवि ने माटी और कुम्भकार पर जो प्रसंग दिए हैं वे बहुत सटीक बन पड़े हैं। माटी की हृदय पीड़ा जहाँ गधे की पीठ पर उभरे घावों को देखकर अभिव्यक्त होती है, वह भी अनूठी अभिव्यक्ति है :
"इस छिलन में/इस जलन में/निमित्त कारण 'मैं ही हूँ।" (पृ. ३६) कवि ने न केवल संस्कृत की सूक्तियों को उचित स्थान पर उद्धृत किया है बल्कि लोक मान्यताओं और कहावतों को भी सही ढंग से प्रयुक्त किया है । हीरा, राख जैसे विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से माटी के न जाने कितने विवों से ब्रह्माण्ड भरा हुआ है, किन्तु हम उन पर कभी नहीं सोचते। कवि ने भाँति-भाँति के माध्यमों से चिन्तन किया है । कभी वर्णमाला के माध्यम से, कभी 'भू-सत्तायाम्' जैसी धातुओं के माध्यम से, कभी दार्शनिक सिद्धान्तों के माध्यम से और कभी सीधे-सीधे मनस्तात्त्विक चिन्तन सरणि के माध्यम से कोमल, गहन, गूढ़ और उदात्त भावनाओं-- को स्वर दिए हैं। आधुनिक पाठकों को इसमें पर्यावरण का सन्देश भी मिलेगा, दार्शनिकों को संसार के बारे में अन्तर्दृष्टि मिलेगी तथा काव्य रसिकों को प्रांजल भाषा में उज्ज्वल अभिव्यक्ति मिलेगी। हिन्दी जगत् को यह काव्य देने के लिए आचार्य विद्यासागरजी वन्दन के अधिकारी हैं।
पृष्ठ
हो.
भूत को प्रसूत
की
..... प्रती माँ की
आँखों में/शेती उरलगा,