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मूकमाटी-मीमांसा :: 111
सृष्टि की पुनस्सृष्टि में जिन तत्त्वों से निरन्तर संघर्ष होता है, उस संघर्ष की प्रकृति का परीक्षण स्रष्टा के अतिरिक्त कौन कर सकता है ? इस प्रसंग में यह भी ध्यातव्य है कि रचना किसी एकल सम्भूति की समग्रता का पुनः दर्शन नहीं है, वह सम्भूति के समाहार से श्रेष्ठता का चयन है । इस क्रम में कवि-लेखक को सम्भूति के माध्यम से असम्भूतियों के प्रादर्श की कल्पक भावना करनी पड़ती है और इस भाव यात्रा की भयानक-मनोरम घाटियों का रोषतोष छनकर रूपाकार ग्रहण करता है।
द्वितीय खण्ड में ही रसों का पक्व विश्लेषण श्रमणदृष्टि का परिचायक है। इससे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कवि ने कथाहीनता को कथात्मक कलेवर प्रदान कर अवसरों का पूरा उपयोग किया है और अपनी युगानुकूल विकृतियों के निराकरण का श्रमसाध्य श्रमण-प्रयास किया है। हास्य से शृंगार तक का निवारण और शान्त की शाश्वत प्रतिष्ठा का प्रयास मध्यकालीन महाकाव्यात्मक निष्पत्तियों के परिपार्श्व में उत्कीर्ण होने पर भी महाघ है, क्योंकि महत् का पुन:-पुनः उद्घाटन प्रादर्श की स्थिति रक्षा के लिए अपेक्षित ही नहीं, आवश्यक है । आधुनिक मनुष्य की विकलता के अनेक कारणों में एक स्पष्ट कारण यह भी है कि उसने अर्थ को ही काम्य बना डाला है। आधुनिक मानव रूपी शब्द ने उपसर्ग और प्रत्यय का त्यागकर संसार-महाकाव्य में अपने को अधम अर्थ तक ही सीमित कर लिया है, फलत: उसका सन्तुलन बिगड़ गया है। धर्म को उसने सम्प्रदाय की संज्ञा दे डाली है और मोक्ष का चर्म चक्षुओं से दर्शन सम्भव नहीं, इसलिए काम और अर्थ की निम्नगा में भयानक नक्रों की मुँदी आँखों के समक्ष वह अपनी समझ से रंगारंग आयोजन करता तो अवश्य है किन्तु नक्रों की यह आँख कब तक मुँदी रह सकती है ? परमाणुओं का यह विकट संयोग कब तक उसे सुरक्षित रख सकता है ? भारतीय संस्कृति ने जिन आश्रमों की परिकल्पना को यथार्थ के धरातल पर उतार कर काया और माया का जो आनुपातिक विधान किया था, वह मनुष्यता की उच्चभूमि थी। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का यह आनुपातिक विचलन आधुनिक मनुष्य के ज्ञान-गर्व की खोखली प्रतिष्ठा का परिचायक है।
काल गरुड़ की यह यात्रा मानों पंखविहीन है । धर्म और मोक्ष के उपसर्ग-प्रत्यय से विहीन आधुनिक मनुष्य कालप्रवाह में उसी तरह पड़ा हुआ है जैसे कोई पक्षी पक्षविहीन होने पर भी आकाशगमन का दम्भ भरता हो । अर्थ की इस भयानक आसक्ति, किन्तु निरुद्देश्यता पर कवि का आक्षेप कितना प्रासंगिक है :
"तुला कभी तुलती नहीं है/सो अतुलनीय रही है/परमार्थ तुलता नहीं कभी अर्थ की तुला में/अर्थ को तुला बनाना/अर्थशास्त्र का अर्थ ही नहीं जानना है
और/सभी अनर्थों के गर्त में/युग को ढकेलना है।
अर्थशास्त्री को क्या ज्ञात है यह अर्थ ?" (पृ. १४२) तपस्या के उत्कर्ष पर काया के प्रति मोह की उपेक्षा कर मनुष्य ने अहिंसा को प्रहार की सीमा से आगे बढ़ाकर वाक्संयम के क्षेत्र में जिस भी' का सन्धान किया, वह आत्मसत्ता और परसत्ता का सार्थवाह है । हम भी हैं, तुम भी हो, तुम्हारा विचार तुम्हारे दृष्टिकोण से अच्छा हो सकता है, किन्तु मेरा मन यह स्वीकार करता है। अत: व्यर्थ का विवाद क्यों ? वाक्-संयम का यह अनेकान्त दर्शन मनुष्य की सांस्कृतिक उत्कृष्टता का अद्भुत निदर्शन है। परन्तु संसार में भी' का भीषण अकाल है और 'ही' का विपुल साम्राज्य है । 'ही' एकांगी दृष्टि है, एकात्म की अहंकार-सूचक ध्वनि । दम्भ की इस विकृति ने मनुष्यता को भयानक दलदल में दाब रखा है। कुम्भ के मुख पर 'ही' और 'भी' के बीजाक्षरों का उदय कराकर कवि ने अक्षर-साधना की प्रपत्ति द्वारा भारतीय और पाश्चात्य संस्कृतियों का विभेद-स्थापन करते हुए राम और रावण की विजय-पराजय का रहस्य खोलना चाहा है :