________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 55
राग-विराग से परे साधु आसीन हैं। सबका ध्यान उनकी ओर आकृष्ट होता है । सब साधु को सादर प्रणाम करते हैं। उनके पदों का अभिषेक करते हैं। गुरुदेव सबको आशीर्वाद देते हैं। इस पर आतंकवाद प्रश्न करता है कि हमें यह तो अनुभूत हुआ कि समग्र संसार ही दुःख से भरपूर है । आतंकवाद दल अक्षय सुख के प्रति अपने अविश्वास को प्रकट करता है तथा अविनश्वर सुख के विषय में उनका अनुभव जानना चाहता है । गुरुदेव वचन नहीं, प्रवचन देते हैं। बन्धन रूप तन, मन एवं वचन का आमूल मिट जाना ही मोक्ष है । इसी की शुद्ध दशा में अविनश्वर सुख होता है जिसे प्राप्त होने के बाद इस संसार में आवागमन से मुक्ति मिल जाती है । महाकाव्य का अन्त होता है :
"महा-मौन में/डूबते हुए सन्त" और माहौल को
अनिमेष निहारती-सी/"मूकमाटी।” (पृ. ४८८) यहाँ इस महाकाव्य की कथा सार संक्षेप में प्रस्तुत की गई है । महाकाव्य की कथा में जहाँ रोचकता है, वहीं सरसता भी है । रोचकता एवं सरसता से अधिक इस महाकाव्य में वैचारिकता है जो इसे विशिष्टता प्रदान करती है। इसी कारण इस महाकाव्य का अधिकांश भाग उद्धरणीय है। कुछ उद्धरण उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत हैं :
"बहना ही जीवन है।" (पृ. २) (२) "ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना/सब के वश की बात नहीं।" (पृ. २) (३) "सत्ता शाश्वत होती है।" (पृ. ७)
"जैसी संगति मिलती है/वैसी मति होती है।" (पृ. ८)
"असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है।" (पृ. ९) (६) “आस्था के तारों पर ही/साधना की अंगुलियाँ/चलती हैं।" (पृ. ९) (७) "पतन पाताल का अनुभव ही/उत्थान-ऊँचाई की/आरती उतारना है ।" (पृ. १०) (८) "विचारों के ऐक्य से/आचारों के साम्य से/सम्प्रेषण में/निखार आता है।" (पृ. २२) (९) “पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है।" (पृ. ३३) (१०) “वासना का विलास/मोह है,/दया का विकास/मोक्ष है।" (पृ. ३८) (११) "लघुता का त्यजन ही/गुरुता का यजन ही/शुभ का सृजन है।” (पृ. ५१) (१२) "ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है।” (पृ. ६४)
___ “धर्म का झण्डा भी/डण्डा बन जाता है/शास्त्र, शस्त्र बन जाता है।" (पृ. ७३) (१४) “शव में आग लगाना होगा,/और/शिव में राग जगाना होगा।" (पृ. ८४) (१५) “आस्था के बिना आचरण में/आनन्द आता नहीं।" (पृ. १२०) (१६) "आस्था का दर्शन आस्था से ही सम्भव है।" (पृ. १२१) (१७) “आमद कम खर्चा ज्यादा/लक्षण है मिट जाने का
कूबत कम गुस्सा ज्यादा/लक्षण है पिट जाने का।" (पृ. १३५) "संगीत उसे मानता हूँ/जो संगातीत होता है/और
प्रीति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है।" (पृ. १४४-१४५) (१९) "एक ही वस्तु/ अनेक भंगों में भंगायित है/अनेक रंगों में रंगायित है, तरंगायित !"
(पृ. १४६)
(१३)
"
(१८)