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64 :: मूकमाटी-मीमांसा को पकड़ने में रचना के साथ स्वयं को अपवर्ग का वासी सिद्ध करने में आप सफल हुए हैं । आपने ठीक ही लिखा है :
"निसर्ग से ही/सृज्-धातु की भाँति/भिन्न-भिन्न उपसर्ग पा तुमने स्वयं को/जो/निसर्ग किया,/सो
सृजनशील जीवन का/वर्गातीत अपवर्ग हुआ।" (पृ. ४८३) साहित्य एवं कला सम्बन्धी अपनी धारणाओं के अनुरूप माटी के अपवर्ग बनने की कहानी उसके निसर्ग बनने की कहानी है, जो मानव के समक्ष जीवन का आदर्श प्रस्तुत करती है । इस कहानी का पट भी विराट् निसर्ग है और अन्त भी निसर्ग बन जाने में निहित है । एक व्यापक, मंगलकारी उद्देश्य की परिपूर्ति के लिए निसर्ग से बढ़कर और कौन-सा कैनवास उपयोगी था ?
मानव मंगल की कामना, श्रमण वृत्ति के विकास के हेतु रचित इस कृति की रचना इसलिए सम्भव हो सकी है कि आप मूलत: आचार्य हैं तथा अपने आध्यात्मिक कर्तव्य के पालन के लिए आपने अपनी प्रतिभा को लगाया है। अत: आप साहित्य को मानव मंगल का उपकरण ही मान सकते हैं। जीवन लक्ष्य के अनुरूप आप साहित्य के क्षेत्र में भी शाश्वतता के अन्वेषक ही हैं। यही कारण है कि इस कृति के प्रत्येक चरण पर आपके चिन्तन की, एक अन्वेषक की तथा सत्य तक पहुँचे हुए विभूति के चिह्न विद्यमान हैं। चिन्तन से आपूरित प्रतिभा का यहाँ अपूर्व संगम प्राप्त होता है तथा यह निर्णय कर पाना कठिन हो जाता है कि चिन्तक प्रतिभा पर हावी हो गया है या प्रतिभा ने चिन्तक को चिन्तन के नए आयाम प्रदान किए हैं। परिणाम यह है कि प्रति पग तत्त्वबोध का एक नया पहलू सामने आता है, यहाँ तक कि कहीं-कहीं उसकी अति भी प्रतीत होती है। लेकिन जिस विभूति ने पूरे विचार, विश्वास और आस्था के साथ जिस मार्ग को चुना है और जीवन भर उसी में चित्तवृत्तियाँ लगाई हैं, उस आत्मा के लिए यह स्वाभाविक भी है। अपनी आध्यात्मिक दुनिया का यात्री भौतिक जीवन की ऊपरी सतह पर कैसे सन्तोष पा सकता है ? वर्तमान के प्रति जागरूकता : आचार्यजी की मानसिकता एक तत्त्व चिन्तक की अवश्य है फिर भी आपकी प्रतिभा का चमत्कार है कि आप वर्तमान से आँख मूंदे हुए नहीं हैं। यह कहना अधिक युक्तिसंगत होगा कि आपका तत्त्वबोध जीवनवास्तव के अनुभव के कारण अधिक गहरा और तीव्र बन पड़ा है। प्रत्यक्ष से मुँह मोड़कर अन्तर के निविड़ में अगर आप रम जाते तो ऐसी रचना सम्भव नहीं थी।
___आपने 'मानस-तरंग' में रचना के प्रयोग की चर्चा के प्रसंग में वर्तमान कुरीतियों को निर्मूल बनाने का उद्देश्य भी स्पष्ट किया है । यह सही है कि इस कृति की कहानी माटी के अपवर्ग तक पहुँचने की कहानी है । प्रकृति के विराट फलक पर माटी की ऊर्ध्वयात्रा सम्पन्न होती है। इसके पात्र भी प्राय: मानव वर्ग के नहीं हैं तथा दर्शन की प्रधानता रचना को भौतिक जीवन से दूर उच्च स्तर पर ले जाती है । तथापि यह स्वत: सिद्ध बात है कि आचार्यजी वर्तमान के प्रति भी पूर्णत: जागरूक हैं।
पाश्चात्य जीवन के संसर्ग एवं भौतिक साधनों की अतिशयता ने भारतीय मानस को बदल ही नहीं दिया है, विकृत भी बना दिया है। बाहरी तड़क-भड़क और चमक-दमक को जीवन मान कर विलासमय जीवन जीने के पीछे आदमी आत्मकेन्द्रित, स्वार्थलिप्त और दोगला बन गया है। भारतीय संस्कृति की दुहाई देता हुआ वह असल में पाश्चात्य जीवन की बाह्य विकृतियों को अंगीकार कर चुका है। इससे सांस्कृतिक, शैक्षिक, राजनीतिक, धार्मिक क्षेत्र में विसंगतियाँ पैदा हो गई हैं। आचार्यजी ने स्थान-स्थान पर इन विसंगतियों पर व्यंग्य किया है और संयत, मर्यादामय, त्यागमय तथा शान्त जीवन की अनिवार्यता स्पष्ट की है। आश्चर्य तो तब होता है जब आचार्यजी जीवन के उच्चादर्शों एवं अध्यात्म की गुह्यताओं की व्याख्याओं को प्रमुखता देते हुए भी वर्तमान जीवन की विसंगतियों को नज़रअंदाज़ नहीं करते।
इस सन्दर्भ में आपने पश्चिमी सभ्यता पर व्यंग्य किया है और भारतीय संस्कृति से पश्चिमी सभ्यता की तुलना