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मूकमाटी-मीमांसा :: 63
प्राप्त होती है। साहित्य के सम्बन्ध में मान्यताएँ : इस प्रकार स्पष्ट है कि मुनिवरजी प्रस्तुत कृति को सोद्देश्य प्रस्तुत करते हैं। आरम्भ में आपने अपना प्रयोजन साफ़ शब्दों में बताया भी है । अतः स्पष्ट है कि आप साहित्य को हित का साधन मानते
शूल को प्रबोधित करता हुआ शिल्पी कहता है कि स्थिर मन से अपने आप में भावित होना ही मोक्ष प्राप्ति है। साहित्य का यही कर्तव्य है । साहित्य के सम्बन्ध में शिल्पी बताता है :
“हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है और/सहित का भाव ही/साहित्य बाना है,/अर्थ यह हुआ कि जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव--सम्पादन हो सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित पुष्प-सम सुख का राहित्य है वह/सार-शून्य शब्द-झुण्ड'! ...शान्ति का श्वास लेता/सार्थक जीवन ही
स्रष्टा है शाश्वत साहित्य का/...यह साहित्य जीवन्त है ना!" (पृ. १११) आचार्यजी सुख एवं शान्ति का निर्माण करने वाले साहित्य को साहित्य मानते हैं; हितविहीन साहित्य को आप सुगन्ध विरहित फूल, सारशून्य शब्द-समूह मात्र मानते हैं। शाश्वत साहित्य की निर्मिति शान्त एवं स्थिर चित्त प्रतिभाशाली से ही सम्भव है, कारण वह जीवन्त प्रक्रिया है। आप कला को जीवन में सुख-शान्ति-सम्पन्नता लाने का साधन मानते हैं :
" 'क' यानी आत्मा-सुख है/'ला' यानी लाना-देता है/कोई भी कला हो
कला मात्र से जीवन में सुख-शान्ति-सम्पन्नता आती है।" (पृ. ३९६) अत: सुख-शान्ति-सम्पन्नता को लाने के लिए विचारों के ऐक्य, संयतता तथा सोद्देश्यता को आप आवश्यक मानते हैं। इस प्रयोजन की परिपूर्ति के लिए रचा गया साहित्य निश्चय ही सदुपयोगी होगा। कवि अपने आपको श्रेष्ठ, महान्, अधिकारी मानकर अपनी बात को पाठकों तक नहीं पहुंचा सकता है । संयतता, नम्रता एवं सहकार की भावना से ही तत्त्वबोध तक पहुँचा जा सकता है। आचार्यजी का यह कथन इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है :
“सम्प्रेषण वह खाद है/जिससे, कि/सद्भावों की पौध/पुष्ट-सम्पुष्ट होती है
..जिससे कि/तत्त्वों का बोध/तुष्ट-सन्तुष्ट होता है/प्रकाश पाता है।” (पृ.२३) उपदेश मात्र रचना का निर्माण नहीं कर सकता । आचार्यजी का यह निवेदन सही है :
"बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, ...बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है ।/बोध में आकुलता पलती है
शोध में निराकुलता फलती है।” (पृ. १०६-१०७) जीवन तथा संसार को सही परिप्रेक्ष्य में समझकर मानव मंगल की कामना से लिखा गया साहित्य स्वयं ही ऊँचा नहीं उठता, वह रचनाकार को भी ऊँचा उठाता है । वास्तविकता यह है कि सृजन निसर्ग से घुल-मिल जाना है।
कहना न होगा कि आचार्यजी ने जिस व्यापक पट को चुना है, वह निसर्ग का पट है। निसर्ग के सही आशय