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36 :: मूकमाटी-मीमांसा आधुनिक मनुष्य को नया समन्वय देते हैं। महाकाव्य में अभिव्यक्त जीवन ही राष्ट्र का सच्चा जीवन होता है । क्योंकि वह सतही जीवन न होकर मूलगत अन्तर्भूत सामाजिक एवं सारभूत रहता है। १. सन्त कवि विद्यासागर ने सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन को दृष्टि में रखकर ही 'मूकमाटी' का सृजन किया है। धरती माटी से कहती है :
“सत्ता शाश्वत होती है, बेटा!" (पृ. ७) पात्र एवं स्थिति के अनुकूल ही वस्तु अथवा व्यक्ति की प्रकृति में परिवर्तन होता है । इधर भारतीय नीतिकार कहता है:
"मुक्ता कर, कर्पूर कर, चातक जीवन जोय ।
सोई जल मुख में परे, व्याल अनिल विष होय ॥" उधर आचार्य विद्यासागर लिखते हैं :
"उजली-उजली जल की धारा/बादलों से झरती है धरा-धूल में आ धूमिल हो/दल-दल में बदल जाती है। वही धारा यदि नीम की जड़ों में जा मिलती/कटुता में ढलती है; सागर में जा गिरती/लवणाकर कहलाती है वही धारा, बेटा !/विषधर मुख में जा/विष-हाला में ढलती है; सागरीय शुक्तिका में गिरती,/यदि स्वाति का काल हो,/मुक्तिका बन कर
झिलमिलाती बेटा,/वही जलीय सत्ता"!" (पृ. ८) २. यह विश्व दुःख से पीड़ित है । “Pleasures are the commas to punctuate the sad story of life.” इतना होते
हुए भी यह तथ्य भी सत्य है कि दु:ख एक स्थल पर आकर अपना दंश खो देता है । उर्दू शायर कहता है : “दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।" कवि विद्यासागर लिखते हैं :
"दुःख की वेदना में/जब न्यूनता आती है
दुःख भी सुख-सा लगता है।"(पृ. १८) ३. समाज में शिल्पी का स्थान महत्त्वपूर्ण होता है । शिल्पी अपने शिल्प के कारण चोरी के दोष से सदा ही मुक्त रहता है। शिल्पी के सौन्दर्य के सन्दर्भ में सन्त कवि की निम्न पंक्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं :
"युग के आदि से आज तक/इसने/अपनी संस्कृति को/विकृत नहीं बनाया
बिना दाग है यह शिल्प/और कुशल है यह शिल्पी।" (पृ. २७-२८) ४. पुत्र के प्रति माँ का ममत्व अक्षुण्ण होता है। माँ के ममत्व की बूंद अमृत के समुद्र से अधिक होती है। माँ अपने बच्चे का सारा दुःख-दर्द, उसके सारे कष्ट स्वयं ही उठा लेती है । इस सन्दर्भ में आचार्य विद्यासागर लिखते हैं :
"लगता है,/माँ की ममता है वह/सन्तान के प्रति ...सब कुछ कष्ट-भार/अपने ऊपर ही उठा लेती है/और भीतर-ही-भीतर/चुप्पी बिठा लेती है।" (पृ. ५५)