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मूकमाटी-मीमांसा :: 19
का यह तात्त्विक सत्य 'मूकमाटी' में 'कंकर' के रूपक द्वारा कितनी सहजता से व्यक्त हुआ है :
"अरे कंकरो!/माटी से मिलन तो हुआ/पर/माटी में मिले नहीं तुम ! माटी से छुवन तो हुआ/पर/माटी में घुले नहीं तुम ! इतना ही नहीं,/चलती चक्की में डालकर/तुम्हें पीसने पर भी अपने गुण-धर्म/भूलते नहीं तुम !/भले ही/चूरण बनते, रेतिल; माटी नहीं बनते तुम !/जल के सिंचन से/भीगते भी हो/परन्तु, भूलकर भी फूलते नहीं तुम!/माटी-सम/तुम में आती नमी नहीं/क्या यह तुम्हारी
है कमी नहीं ?/तुम में कहाँ है वह/जल-धारण करने की क्षमता?" (पृ. ४९-५०) 'पूर्ण समर्पण' ही 'प्राणीमात्र के प्रति आस्था' का भी संचार करता है । और तभी मनुष्य ‘अविचारों से भी मुक्त रह पाता है। कोई भी ऐसा विचार जो मनुष्य को संशय, सन्देह और नास्तिकता की ओर उन्मुख करता है वस्तुतः विचार नहीं, अविचार है । इस बात की पुष्टि इसी तथ्य से हो जाती है कि तब वह जीवन और जगत् के रहस्यों से स्वयं को असम्पृक्त रखता है। ऐसे में प्राणीमात्र के प्रति आस्था, सर्वमंगल का भाव या लोकमंगल की कामना तो उसके हृदय में प्रस्फुटित हो पाना असम्भव ही है । 'प्राणीमात्र के प्रति आस्था का सिद्धान्त तीन तत्त्वों से सम्पृक्त है- समर्पण, जीवन और जगत् की परस्पर एकता और नैतिकता । यही तीन तत्त्व 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त में भी पाए जाते हैं। 'मूकमाटी' में लोक मंगल के इस भाव पर आइए दृष्टिपात करें :
“यहाँ "सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव,/सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो/गुण के फूल विलसित हों/नाशा की आशा मिटे
आमूल महक उठे/"बस!" (पृ. ४७८) ‘अविचार' ही 'कु-विचार' की ओर उन्मुख करता है । बदले या वैर के इस भाव की अभिव्यक्ति 'मूकमाटी' में 'काँटे' के दृष्टान्त द्वारा हुई है :
"माटी खोदने के अवसर पर/कुदाली की मार खा कर जिसका सर अध-फटा है/जिसका कर अध-कटा है... ...फिर भी मिट नहीं रहा वह,.../शिल्पी को शल्य-पीड़ा देकर ही इस मन को चैन मिलेगा.../बदले का भाव वह अनल है/जो
जलाता है तन को भी, चेतन को भी।" (पृ. ९५-९८) ये पंक्तियाँ तत्काल स्मृति-पटल पर संजोती हैं एक अविस्मरणीय और ऐतिहासिक घटना- भरत और बाहुबली की। बाहुबली, जिन्होंने राज्य के निमित्त लड़ाई में विजय पाने और वैर-प्रतिवैर तथा कुटुम्ब-कलह के बीज बोने की अपेक्षा 'सच्ची विजय' का वरण किया। उन्होंने अहंकार और तृष्णा-जय में ही जीवन की सार्थकता देखी । युद्ध उन्होंने क्रोध और अभिमान से किया और प्रतिकार किया अवैर से वैर का । क्रोध, वैर के विपरीत संयम और परदुःख-कातरता की स्थापना का आदर्श संकल्प भी 'मूकमाटी' के कथ्य का केन्द्रीय बिन्दु है । जहाँ काँटा' वैर और बदले के भाव से दग्ध छटपटा रहा है वहीं निकट में एक गुलाब का पौधा खड़ा है । सुरभि से महकता । प्रकृति ने तो भरसक हमें सद्गुणों