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मूकमाटी-मीमांसा :: 11
आश्रय लेकर विकसित होते हैं और पात्र उस कथा को घटनाओं के माध्यम से गति देते हैं। महाभारत जैसा विशिष्ट महाकाव्य जिसके विषय में यहाँ तक कहा गया कि जो इसमें नहीं है, वह फिर कहीं नहीं है । पर कथा-उपकथाओं की बहुलता से सम्पन्न यह सांस्कृतिक महाकाव्य बल देकर कहता है कि मनुष्य से श्रेष्ठतर कुछ नहीं है और यहाँ मनुष्य परिभाषित है, उच्चतर मूल्य चिन्ताओं से प्रेरित । 'मूकमाटी' का प्रस्थान, विकास और समापन सबका आधार तत्त्वचिन्तन है, पर वह उस साधारण ‘मेटाफिज़िकल काव्य' से आगे बढ़ता है, जहाँ दृश्य देखकर निष्कर्ष प्राप्त किए जाते हैं और किंचित् सदाशयता व्यक्त की जाती है, बस ।
चिन्तनशीलता के सहारे दीर्घाकारी काव्य रच लेना कई बार असम्भव-सा लगता है । राबर्ट ब्रिजेज जैसे कवियों ने 'टेस्टामेंट ऑफ़ ब्यूटी' में प्रयोग किया है जहाँ वह चिन्तन के सहारे अग्रसर है। सौन्दर्य को परिभाषित करते हुए उसने उसे आध्यात्मिक आधार दिया है : “सौन्दर्य विधाता का सर्वोत्कृष्ट मौलिक उद्देश्य, लक्ष्य तथा शान्ति भरा आदर्श है।" आचार्य विद्यासागर 'मूकमाटी' में तत्त्व चिन्तन की प्रतिष्ठा करते हुए सावधान हैं कि विचार अमूर्त अथवा वायवीय बनकर न रह जायें । यह कठिनाई इसलिए और भी अधिक है कि उन्होंने धरती, माटी, शिल्पी, कुम्भ आदि को पात्रों के रूप में प्रस्तुत करने का अभिनव कार्य किया है । वे अपने चिन्तन को पृथ्वी से जोड़ते हैं। यह है उसका प्रस्थानबिन्दु, पर उसे वे निरन्तर ऊर्ध्वमुखी प्रयाण की ओर ले जाते हैं। इसे उनकी कविता की चिन्तन ऊर्जा के रूप में देखना होगा। जो कविता उठान नहीं लेती वह एकरस होकर एक ही बिन्दु पर रुक-ठहर जाती है, गतिरोध जैसी । पर आचार्य विद्यासागर का सन्त-कवि अपने समय-समाज से असन्तुष्ट है और वह एक श्रेष्ठतर समय की परिकल्पना करता है। 'मूकमाटी' कवि की कल्पना क्षमता से सम्पन्न काव्य है जिसे पात्र नियोजन, प्रतीक विधान, बिम्ब रचना सभी में देखा जा सकता
'मूकमाटी' शीर्षक स्वयं में प्रमाण है कि आचार्य विद्यासागर का तत्त्वदर्शन अपनी भूमि के संस्पर्श से उपजा है, पर वह उस का अथ है, इति नहीं; प्रस्थान है, समापन नहीं। माटी मौन है, पर वह सम्पूर्ण जीवन-जगत् का आधार है। उसकी मौन भाषा अत्यन्त अर्थगर्भी है। धरती माँ है. माटी उसकी प्रिय सन्तति और शिल्पी वह अद्वितीय रचनाकार. जो मृत्तिका को कुम्भ के रूप में रूपायित करता है । अपनी धरती के परस से उपजा यह काव्य सूर्योदय से आरम्भ होता है, मानों कवि समय के अन्धकार से संघर्षरत है और यह परम्परा कबीर, तुलसी, रवीन्द्र, निराला का अग्रिम विकास है। "सन्तो भाई, आई ज्ञान की आँधी' (कबीर), "अब लों नसानी, अब ना नसैहों' (तुलसी), “आज इस प्रभातकाल में सूर्य की किरणे/प्राणों के भीतर कैसे प्रवेश कर गई" (रवीन्द्र : निर्झर का स्वप्नभंग), "जागो जागो आया प्रभात/ बीती वह बीती अन्ध रात" (निराला : तुलसीदास) में सूर्योदय चेतना के जागरण का उपक्रम है। 'मूकमाटी' में निशा का अवसान और सूर्योदय में चेतना की जागृति का आवाहन है : “प्राची के अधरों पर/मन्द मधुरिम मुस्कान है" (पृ. १) । उषा आगमन के दृश्य के माध्यम से कविश्री दर्शन की निष्पत्ति करते हैं : “मन्द-मन्द/सुगन्ध पवन/ बह रहा है;/बहना ही जीवन हैं" (पृ. २)- अर्थात् 'चरैवेति चरैवेति' । चलना ही जीवन है, रुक जाना - ठहर जाना जड़ता, लगभग मृत्यु ।
आचार्य विद्यासागर ने सन्त की चिन्तनशीलता और कवि के संवेदन के संयोजन-कौशल से 'मूकमाटी' की रचना की है। जीवनानुभव पर आधारित काव्य पंक्तियाँ यदि केवल वक्तव्य होती तो वे उपदेश बनकर रह जातीं और उन्हें स्वीकारना कोई अनिवार्यता न होती । पर सन्त-कवि के रूप में वे इस दिशा में पर्याप्त सजग हैं, समानधर्माओं की प्राचीन परम्परा को अग्रसर करते हुए। मराठी सन्त कवियों ने अपने अभंगों में गूढातिगूढ तत्त्वदर्शन का प्रतिपादन किया है, पर जीवन की पीठिका पर । सन्तों की सबसे बड़ी शक्ति है-उनकी सहजता और इसीलिए वे सामान्यजन में स्वीकृत