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कातन्त्रव्याकरणम् संयोगान्तलोप की अनित्यता से "संयोगान्तस्य लोपः" (२।३।५४) सूत्र से संयोगान्त स् के लोप का निषेध, “मनोरनुस्वारो धुटि" (२।४।४४) से म् को अनुस्वार, "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६२) से स् को विसर्ग एवम् "अनव्ययविसृष्टस्तु सकारं कपवर्गयोः" (२।५।२९) से विसर्ग को स् आदेश करने पर 'पुंस्कोकिलः' रूप सिद्ध होता है । 'पुंश्चकोरः, पुंश्छत्रम्, सुपुंश्चरति' में "विसर्जनीयश्चे छे वा शम्" (१।५।१) सूत्र से विसर्ग के स्थान में शकारादेश, 'पुंष्टिटिभः' में "टे ठे वा षम्" (१।५।२) से मूर्धन्य षकारादेश प्रवृत्त होता है । 'पुंस्कोकिलः' किसे कहते हैं - इस विषय में वङ्गटीकाओं में एक श्लोक प्राप्त होता है
संवर्धितः पितृभ्यां य एकः पुरुषशावकः।
पुंस्कोकिलः स विज्ञेयः परपुष्टो न कहिचित् ॥ 'भवाँल्लुनाति, भवाँल्लिखति' इत्यादि की सिद्धि के लिए "ले लम्' (१।४।११) सूत्र बनाया गया है । इससे लकार के पर में रहने पर पदान्तवर्ती नकार को लकारादेश होता है । पाणिनि ने ऐसे स्थलों में परसवदिश का विधान किया है - "तोर्लि" (८।४।६०)। पाणिनीय और कातन्त्र दोनों में ही सानुनासिक आदेश साक्षात् विहित नहीं है, व्याख्या के बल पर ही सानुनासिक लकारादेश उपपन्न होता है । 'भवाञ्जयति, भवाञ्शेते' इत्यादि उदाहरणों में पदान्तवर्ती नकार के स्थान में अकारादेश प्रवृत्त होता है । यहाँ पाणिनि ने श्चुत्वविधान किया है - "स्तोः श्चुना श्चुः" (८।४४०)। ज्ञातव्य है कि चवर्ग के अन्तर्गत आने वाले 'च-छ-ज-झ-ञ' इन पाँचों वर्गों के परवर्ती होने पर पदान्तवर्ती नकार के स्थान में सकारादेश के उदाहरण पाणिनीय व्याकरण में नहीं मिलते । अतः पाणिनीय निर्देश की अपेक्षा कातन्त्र का निर्देश अधिक विशद कहा जा सकता है - "ज-झ-अ-शकारेषु अकारम्” (१।४।१२)।
विशेष
कातन्त्रव्याकरण के कारकप्रकरण में एक सूत्र है - "तवर्गश्चटवर्गयोगे चटव!" (२।४।४६)। इस सूत्र से चवर्ग के परवर्ती होने पर तवर्ग के स्थान में चवगदिश होता है । इसी के निर्देशानुसार ज-झ एवं त्र वर्ण के पर में रहने पर न् के स्थान में ञ् आदेश किया जा सकता है । यदि ऐसा स्वीकार कर लिया जाए तो फिर केवल शकार के परवर्ती होने पर ही नकार को ञकारादेश करना अवशिष्ट रह जाता है । तदर्थ "शे अकारम्' इतना ही सूत्र करना आवश्यक है । इस पर वृत्तिकार