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सन्धिप्रकरणे चतुर्थी वर्गपादः
( पा० ८ । ३ । ६) । आचार्य शर्ववर्मा ने इसके लिए पृथक् सूत्र नहीं बनाया । अतः दुर्गसिंह आदि व्याख्याकारों का अभिमत यह है कि शिइभिन्न अघोष के पर में रहने पर 'पुमन्स्' शब्द में प्राप्त संयोगान्तलोप अनित्य माना जाता है । तदनुसार 'पुमांश्चासौ कोकिलश्च' इस विग्रह तथा 'पुमन्स् + कोकिल:' इस अवस्था में "व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोः " ( २/५/४ ) सूत्र द्वारा अतिदेश, "पुंसोऽनुशब्दलोपः " (२।२।४०) से अन् का लोप, संयोगान्तलोप की अनित्यता से "संयोगान्तस्य लोपः” (२। ३ । ५४) सूत्र से संयोगान्त स् के लोप का निषेध, “मनोरनुस्वारो घुटि” (२।४।४४ ) से म् को अनुस्वार, “रेफसोर्विसर्जनीयः " ( २। ३ । ६३) से स् को विसर्ग एवं "अनव्ययविसृष्टस्तु सकारं कपवर्गयोः” (२।५।२९) से विसर्ग को स् आदेश करने पर 'पुंस्कोकिलः ' रूप सिद्ध होता है । 'पुंश्चकोर: पुंश्छत्रम्, सुपुंश्चरति' में " विसर्जनीयश्चे ठे वा शम्” (१/५/१) सूत्र से विसर्ग के स्थान में शकारादेश 'पुंष्टिट्टिभ:' में "टे ठे बा षम् ” (१।५।२ ) से मूर्धन्य षकारादेश प्रवृत्त होता है । 'पुंसर:' में शिट्पर होने के कारण संयोगान्तलोप का निषेध नहीं होता । अतः सलोप तथा म् को अनुस्वारादेश होने पर 'पुंसर:' रूप साधु होता है ।
ऐसी मान्यता है कि वसन्त ऋतु में पुरुष - कोकिल के ही स्वर में विशेष माधुर्य रहता है । स्त्री - कोकिल में नहीं । यह भी प्रसिद्धि है कि कोकिल अपने अण्डे काक- नीड में रख देते हैं और इस प्रकार कोकिल - शावकों का पालन-पोषण काकों द्वारा किया जाता है । इसीलिए इनका 'परभृतः' यह भी एक नाम है । परन्तु पुरुषशावकों का पालन-पोषण स्वयं कोकिल माता- पिता ही करते हैं । या जिस पुरुषशावक का पालन-पोषण कोकिल माता-पिता द्वारा किया जाता है उसी के स्वर में विशेष माधुर्य उत्पन्न होता है । बँगला - टीकाओं में एतद्विषयक एक श्लोक उपलब्ध होता है
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संवर्धितः पितृभ्यां य एकः पुरुषशावकः ।
पुंस्कोकिलः स विज्ञेयः परपुष्टो न कर्हिचित् ॥
[रूपसिद्धि]
१. भवांस्तरति । भवान् + तरति । तकार के पर में रहने पर पदान्तवर्ती न को अनुस्वारपूर्वक सकारादेश ।