________________
सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः
२५९ वयं तु 'अघोषवतोरित्युभयग्रहणमेव खण्डयते' (इति मन्यामहे) । अयमभिप्रायः - अत्र सूत्रम् अकृत्वा पूर्वसूत्रे एव चकारो विधीयताम् । ततश्च "अपरो लोप्योऽन्यस्वरे यं वा" ( १।५।९) इति लोप- यकारयोर्विधानाद् आकारघोषवतो.पविधानाद् नामिनो "घोषवत्स्वरपर०"(१।५।१३) इति रेफविधानाच्च पारिशेष्यादघोषवतोरेव प्राप्तश्चकारः समुच्चरिष्यते, तत्र पूर्वसूत्रात् शकाराद्यनुकर्षणमाशय समाधत्ते–'कः शेते' इति । वररुचिस्तु चकारात् क्वचिद् अघोषेऽपि उत्त्वं भवति । यथा- 'वातोऽपि तापपरितो सिञ्चति' इत्याचष्टे ।। ६९।
[समीक्षा]
'कः +गच्छति, कः+ धावति' इस अवस्था में कातन्त्रकार के अनुसार विसर्ग को उकारादेश होता है । जबकि पाणिनीय प्रक्रिया के अनुसार विसर्गावस्था से पूर्व ही स् को रु तथा उस रु को “हशि च" (पा०६।१। ११४) से उत्त्व आदेश करके उक्त रूपों की निष्पत्ति की जाती है।
पदों का साधुत्व बताने वाले व्याकरणशास्त्र में 'शिवः, अर्यः, कः, धावति' आदि पदों के स्वतन्त्र रूप में सिद्ध हो जाने के बाद ही दो पदों में (पदस्थ वर्गों में) सन्धिनियमों का प्रवृत्त होना अधिक संगत कहा जा सकता है । अतः कातन्त्र में जो विसर्ग को उकारादेश विहित है, वही अधिक संगत है, न कि 'शिव' प्रातिपादिक से प्रथमा-एकवचन 'सु' प्रत्यय के प्रवृत्त होने पर ही पदान्तर ‘अर्थः, वन्द्यः' आदि पदों के सन्निधान से सन्धिकार्य का होने लगना संगत कहा जाएगा । अतः कातन्त्रकार का दृष्टिकोण उचित है ।
[रूपसिद्धि]
१. को गच्छति । कः + गच्छति। ककारोत्तरवर्ती अ तथा घोषसंज्ञक वर्ण ग के मध्य में स्थित विसर्ग को 'उ' आदेश, “अवर्ण उवणे ओ” (१२२) से ककारोत्तरवर्ती 'अ' को ओ आदेश तथा उ का लोप।
२. को धावति । कः + धावति । ककारोत्तरवर्ती अ तथा घोषसंज्ञक ध् के मध्यवर्ती विसर्ग को 'उ' आदेश, “अवर्ण उवणे ओ" (१।२।२) से ककारोत्तरवर्ती अ को ओ तथा परवर्ती उ का लोप ।।६९।