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सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः
कत्वेनान्वयः= अन्वाचयः' । जैसे 'भिक्षाम् अट गां चानय' = भिक्षा माँग लामो तथा गाय को ले आओ | यहाँ भिक्षाटन मुख्य कार्य है तथा गाय ले आना गौण |
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यहाँ चकार को अन्वाचयशिष्ट मानने के फलस्वरूप 'उच्चै रौति' आदि स्थलों में केवल रेफ का लोप ही प्रवृत्त होता है, दीर्घ नहीं, क्योंकि 'ए - ऐ - ओ - औ' ये चार सन्ध्यक्षरसंज्ञक वर्ण सदैव दीर्घ होते हैं, उन्हें दीर्घ करने की कोई आवश्यकता नहीं – 'नित्यं सन्ध्यक्षराणि गुरूणि' ।
[रूपसिद्धि]
१. अग्नी रथेन । अग्निर् + रथेन । अव्यवहित दो रेफों में से पूर्ववर्ती रेफ का लोप तथा उससे पूर्ववर्ती इकार को दीर्घ ।
२. पुना रात्रिः । पुनर् + रात्रिः । किसी भी स्वर वर्ण का व्यवधान न रहने पर दो रेफों में से पूर्ववर्ती रेफ का लोप तथा उससे पूर्ववर्ती अकार को दीर्घ आदेश |
३ . उच्चै रौति | उच्चैर् + रौति । दो रेफों के अव्यवहितरूप में रहने पर पूर्ववर्ती रेफ का लोप । यहाँ लुप्त रेफ से पूर्ववर्ती ऐकार स्वतः दीर्घ है, अतः उसके दीर्घविधान की कोई आवश्यकता नहीं होती । इसे व्याख्याकारों ने सूत्रस्थ 'च' को अन्वाचयशिष्ट मानकर सिद्ध किया है । ७८ ।
७९. द्विर्भावं स्वरपरश्छकार ः (१।५।१८ )
[सूत्रार्थ]
स्वर वर्णों से परवर्ती छकार को द्वित्व होता है ।। ७९ ।
[दु० बृ०]
स्वरात् परश्छकारो द्विर्भावमापद्यते । वृक्षच्छाया, इच्छति, गच्छति । अप्यधिकाराद् दीर्घात् पदान्ताद् वा । कुटीच्छाया, कुटी छाया । आङ्माभ्यां नित्यम् । आच्छाया, माच्छिदत् ।। ७९ ।
॥ इति कातन्त्रव्याकरणस्य दौर्गसिंहयां वृत्तौ सन्धौ पञ्चमो विसर्जनीयपादः समाप्तः ॥