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सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः
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[[विशेष ]
१. “रप्रकृतिरनामिपरोऽपि” (१ | ५ | १४) सूत्रपठित 'अपि' शब्द का अधिकार इस सूत्र में भी माने जाने के कारण दीर्घस्वर के बाद आने वाले छकार का द्विर्भाव विकल्प से होता है- कुटीछाया, कुटीच्छाया ।
२. ‘उक्त के अनुसार आङ् तथा मा से परवर्ती छकार को द्विर्भाव नित्य होता है - आच्छाया, माच्छिदत् ।
३. ‘स्वरात्' न कहकर सूत्रकार ने जो 'स्वरपरः' कहा है, उसके कहने का तात्पर्य यह है कि संहिता में ही छकार को द्विर्भाव होगा, असंहिता में नहीं । जैसे - 'हे छात्र ! छत्रं पश्य' । यहाँ छकार को द्विर्भाव नहीं होता है ।
[रूपसिद्धि]
१. वृक्षच्छाया । वृक्ष + छाया । क्षकारोत्तरवर्ती स्वर वर्ण 'अ' से पर में स्थित छकार को द्विर्भाच तथा " अघोषे प्रथमः " ( २ | ३ | ६१ ) से पूर्ववर्ती छकार को चकारादेश |
२. इच्छति । इ + छति । “गमिष्यमां छः” (३ । ६ । ६९) से 'इष्' धातुस्थ षकार को छकार, प्रकृत सूत्र से छकार को द्वित्व तथा " अघोषे प्रथमः " ( २ । ३ । ६१ ) से पूर्ववर्ती छकार को चकार ।
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३. गच्छति । ग + छति । “गमिष्यमां छः” (३ । ६ । ६९) से 'गम्' धातुस्थ मकार को छकार, प्रकृत सूत्र से छकार को द्वित्व तथा 'अघोषे प्रथमः" ( २ । ३ । ६१ ) से पूर्ववर्ती छकार को चकारादेश ।। ७९ ।
॥ इत्याचार्यशर्ववर्मप्रणीतस्य कातन्त्रव्याकरणस्य प्रथमे सन्धिप्रकरणे समीक्षात्मकः
पञ्चमो विसर्जनीयपादः समाप्तः ॥
॥ समाप्तं च सन्धिप्रकरणम् ॥