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कातन्वव्याकरणम्
(कात० परि० सू० ३५) इत्यस्ति, अतः असिद्ध इत्युच्यते । अन्यथा कोऽर्थः सिद्धो वर्ण इति कथं सिद्धयति । अत एव ‘क इह' इत्यादौ विसर्जनीयलोपे सन्धिनिषिध्यते ? सत्यम्, प्रक्रियागौरवनिरासार्थं लोप्यग्रहणमिति कुलचन्द्रः। परमार्थतस्तु लोप्यग्रहणात् क्वचित् स्वरानन्तर्येऽप्यसिद्धवद्भावस्तेन 'खेयम्' इति सिद्धम् ।।७६ ।
[समीक्षा
'एषः + चरति, सः+ टीकते' इस अवस्था में कातन्त्रकार विसर्ग का लोप करके 'एष चरति, स टीकते' आदि शब्दरूपों का साधुत्व ज्ञापित करते हैं जबकि पाणिनि विसर्गादेश की अवस्था से पूर्व ही सु-प्रत्यय का लोपविधान करते हैं - "एतत्तदोः सुलोपोऽकोरनसमासे हलि" (६। १ । १३२)।
यहाँ कातन्त्रकार की प्रक्रिया को इसलिए अधिक संगत कहा जा सकता है कि पदों का साधुत्व बताने में प्रवृत्त व्याकरणशास्त्र में पृथक्-पृथक् पदों की सिद्धि हो जाने पर ही उनका पदान्तर से संबन्ध तथा उस पदान्तर के सान्निध्य से प्राप्त सन्धिकार्यों की प्रवृत्ति होनी चाहिए | इस प्रकार कातन्त्रकार द्वारा निर्दिष्ट विसर्ग का लोप अधिक युक्तियुक्त है । पाणिनि-द्वारा विहित सुलोप का निर्देश इसलिए अधिक युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि ‘एष - स्' इस अवस्था में ही 'चरति' की उपस्थिति मानना उचित नहीं कहा जा सकता है और ऐसा होने पर सुलोप का विधान करना भी सङ्गत नहीं होगा।
[विशेष]
"रप्रकृतिरनामिपरोऽपि" (१/५/१४) सूत्रपठित ‘अपि' शब्द का अधिकार (अनुवृत्ति) यहाँ भी माना जाता है, जिसके फलस्वरूप 'एषकः करोति, सकः करोति' इन अक्प्रत्ययघटित रूपों में तथा अनेषो गच्छति, असो गच्छति' इन नञ्समासघटित रूपों में 'एष - स' के बाद वर्तमान विसर्ग का लोप नहीं होता | द्र०-दु० वृ० - "अप्यधिकारात्....... अकि नसमासे न स्यात्"॥
[रूपसिद्धि]
१. एष चरति । एषः + चरति । व्यञ्जन वर्ण च् के परवर्ती रहने पर एष - से उत्तरवर्ती विसर्ग का लोप |