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कातन्त्रव्याकरणम्
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को रेफ आदेश, इरुरोरीरूरौ (२।३ । ५२) से ईर् आदेश तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः ' (२ | ३ | ६३ ) से पुनः विसर्ग होने पर 'सुपीः, सुतू:' प्रयोग सिद्ध होते हैं । पाणिनि के अनुसार सुलोप, रेफ, उपधादीर्घ तथा विसर्ग आदेश करके इन रूपों को सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार पाणिनीय में जो एक कार्य कम करके रूपसिद्धि हो जाती है, उससे यहाँ पाणिनीय प्रक्रिया को ही संक्षिप्त कहा जा सकता है। कातन्त्र-वृत्तिकार ने विसर्ग को रकारादेश करने का जो प्रयोजन ईर् - ऊर् आदेश बताया है, वह उपस्थित विरोध का एक समाधानमात्र है, सरलता - संक्षेप का द्योतक नहीं ।
[विशेष ]
वस्तुतः कातन्त्र व्याकरण में रेफ की उपधा को केवल दीर्घ-विधान न करके इर् के स्थान में ईर् तथा उर् के स्थान में ऊर् आदेश की व्यवस्था की गई है। “ इरुरोररूरौ ” (२।३।५२) ।
[रूपसिद्धि]
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१. सुपीः । सुपिस् + सि । व्यञ्जनाच्च ( २ ।१ ।४९ ) से सि-प्रत्यय का लोप “रेफसोर्विसर्जनीयः” (२ | ३ |६३ ) से स् को विसर्ग, “नामिपरो रम्” (१।५।१२ ) से विसर्ग को रेफ,‘“इरुरोरीरूरौ ” ( २ । ३।५२ ) से ईर् आदेश तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः " (२ । ३ । ६३) से र् को विसर्ग आदेश ।
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२ . सुतूः । सुतुस् + सि । सि- प्रत्यय का लोप, स् को विसर्ग, विसर्ग को रेफ, रेफ को ऊर् तथा र् को विसर्ग ।। ७३ ।
७४. घोषवत्स्वरपरः ( १।५।१३ )
[सूत्रार्थ]
नामिसंज्ञक वर्ण से परवर्ती विसर्ग के स्थान में रेफ आदेश होता है, यदि विसर्ग के बाद घोषवान् वर्ण तथा उसके बाद स्वर वर्ण हो तो । घोषसंज्ञक वर्ण और स्वर वर्ण में विपर्यास भी अभीष्ट है || ७४ |