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कातन्त्रव्याकरणम्
अथ प्रकृतिप्रत्ययोपलम्भाय संज्ञाशब्दा यथाकथंचिद् व्युत्पाद्यास्तदा वर्णागमो वर्णविपर्ययश्चेत्यादि निरुक्तलक्षणमपि लोकोपचारात् सिद्धम् । अन्वर्थो यथा- 'गावो विद्यन्तेऽस्मिन्निति गोष्पदो देशः, गवामगोचरेऽपि | गोष्पदपूरं वृष्टो देवः' इति क्षेत्रादेवर्षप्रमाणमिह गम्यते, न पुनर्गवां पदमात्रे वर्तते ।। ६४।
[वि० प०]
ते थे० । कारस्करादय इति । 'कारस्करो वृक्षः' इति सूत्रं न वक्तव्यम् । एते हि संज्ञाशब्दा वृक्षादिवल्लोके विशिष्टविषयतया प्रसिद्धाः। नहि कारं करोतीति कारस्करो वृक्ष इत्यन्वर्थो घटते । तस्माद् यस्तु लोकतः सिद्धस्तत्र किं यत्नेनेति ? यदि संज्ञाशब्दानामप्यमीषां प्रकृतिप्रत्ययविभागोपलम्भाद् यथाकथंचिदवश्यं कार्या व्युत्पत्तिः, तदा वर्णागमो वर्णविपर्ययश्चेति लोकत एव वेदितव्यमिति || ६४
[समीक्षा]
'कः + तरति, कः + थुडति' इस अवस्था में कातन्त्र और पाणिनीय दोनों ही व्याकरणों के अनुसार विसर्ग को सकारादेश होकर ‘कस्तरति, कस्थुडति' शब्दरूप निष्पन्न होते हैं । अतः यहाँ उभयत्र साम्य है।
[विशेष]
पाणिनि ने "कुस्तुम्बुरूणि जातिः" (६।१५४३) सूत्र से लेकर "पारस्करप्रभृतीनि च संज्ञायाम्" (६।१।१५७) तक १५ सूत्रों द्वारा 'जाति- क्रियासातत्य, प्रतिष्ठाअनित्य' आदि के विवक्षित या गम्यमान होने पर 'कुस्तुम्बुरूणि, अपरस्पराः सार्था गच्छन्ति, गोष्पदो देशः, आस्पदम्, आश्चर्यम्, मस्करो वेणुः, मस्करी परिव्राजकः, कास्तीरं नाम नगरम्, कारस्करो वृक्षः, पारस्करो देशः' आदि शब्दों की सिद्धि निपातनप्रक्रिया से बताई है, जिनमें सुडागम अवश्य देखा जाता है । वस्तुतः व्युत्पत्ति के बल से इन शब्दों का अर्थ - निश्चय नहीं किया जा सकता, बल्कि लोकप्रसिद्धि के अनुसार ही इनके अर्थ का अवधारण होता है | व्याकरणशास्त्र में भी आचार्यों ने लोक का प्रामाण्य माना है । कातन्त्र व्याकरण का सूत्र है- "लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धिः" (१।१२३) । अर्थात् जिन शब्दों की सिद्धि के लिए इस व्याकरण में सूत्र नहीं बनाए गए हैं उनकी सिद्धि लोकव्यवहार या लोकप्रसिद्धि के अनुसार जान लेनी चाहिए । इसे ही ध्यान में रखकर दुर्गसिंह आदि व्याख्याकारों ने कहा