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सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः [वि०प०]
पफयोः। अधिकृतेन वाशब्देन विकल्पार्थे लब्धे यत् पुनर्नवाग्रहणं तद् व्यवस्थितविभाषार्थमित्याह-व्यवस्थित इत्यादि । कथमेतद् यावता वक्ष्यमाणं तावद् वाग्रहणं विकल्पनिवृत्त्यर्थम् । तच्च विकल्पं निवर्तयते, किमुत्तरत्र आहोस्विद् 'उभयोर्विभाषयोर्मध्ये यो विधिः स नित्यः' (काला०परि०सू०७८) इति पूर्वसूत्रे सन्देहव्युदासार्थमेवेह नवाग्रहणं कथं व्यवस्थितविभाषार्थमुच्यते । एवं तर्हि अव्ययानामनेकार्थत्वाद् भविष्यति इति । शिटपर० इति । शिट् परो यस्मादिति विग्रहः । वासः क्षौममिति । क्षुमा अतसी । “तस्येदम्" (२ ६७) इत्यण् । अद्भिरिति । “अपां भे दः" (२।३।४६) इति ।। ६६।
[क०च०]
पफ० । व्यवस्थितविभाषयेति वृत्तिः । अत्र शिट्परं शषसमात्रपरमिति बोध्यम् । शादय इति तु तालव्यपाठः, तेनान्यदुदाहरणद्वयम्- 'छात्रः चशौ पठति; छात्रः ट्षौ पठति' इति द्रष्टव्यम् । क्षौमेत्यादि पञ्जी | "तस्येदम्" (२।६।७) इत्यणिति सूत्रावयवमानं न वाक्यम् । वाक्यं तु क्षुमाया इदमिति ।। ६६ ।
[समीक्षा]
'कः+ पचति, कः + फलति' इस अवस्था में दोनों ही व्याकरणों के अनुसार विसर्ग को उपध्मानीय आदेश होता है, परन्तु अन्तर सूत्र- सं० ६५ के अनुसार ही है । अर्थात् पाणिनि ने केवल "कुप्वो क-पौ च" ( ८।३।३७) यह विधिसूत्र बनाया है । उन्होंने न तो इस सूत्र में उपध्मानीय शब्द पढ़ा है और न कोई इस प्रकार की स्वतन्त्र संज्ञा ही । इसके विपरीत कातन्त्रकार ने उपध्मानीय संज्ञा की है- " प इत्युपध्मानीयः" (१।१।१८) तथा प्रकृत विधिसूत्र में भी उसका स्पष्ट पाठ है।
[विशेष]
पाणिनीय व्याख्याकारों ने उपाध्मानीय को अर्धविसर्ग के सदृश आकृति वाला बताया है, जब कि कातन्त्रव्याख्याकार इसे गजकुम्भ के सदृश आकृतिवाला वर्ण कहते हैं । अर्ध विसर्ग की आकृति तो जिह्वामूलीय जैसी ही है--, परन्तु गजकुम्भ की अनेक आकृतियाँ भिन्न-भिन्न संस्करण वाले ग्रन्थों में देखी जाती हैं । जैसे- ७, , , 9, M, ।