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सन्धिप्रकरणे चतुर्थी वर्गपादः
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[विशेष ]
(१) 'डढणपरः' शब्द का अर्थ 'डढणेभ्यः परः' नहीं है, किन्तु 'डढणाः परे यस्मात्' यह माना जाता है। अर्थात् यहाँ तत्पुरुषसमास न होकर बहुव्रीहि समास दिखाया गया है | यदि बहुव्रीहिसमास ही यहाँ इष्ट हो तो फिर 'डढणेषु' ऐसा पाठ किया जाना चाहिये । इस पर व्याख्याकारों ने अपना अभिमत स्पष्ट करते हुए कहा है कि सूत्रकार ने ऐसा इसलिए किया है कि तत्पुरुष समास के अनुसार ' षण्णवतिः, षण्णगरी' आदि स्थलों में भी णकारादेश सम्पन्न हो जाए, क्योंकि 'षड् + नवतिः, षड्+नगरी' में न् से परवर्ती ड नहीं है, किन्तु ड से पर में नकार विद्यमान है । अतः केवल बहुव्रीहि समास मानने पर ' षण्णवति:' आदि स्थलों में णकारादेश नहीं हो सकता । ऐसी स्थिति में भी णकारादेश प्रवृत्त हो जाए, अतः उभयसमासविहित ‘डढणपरः' यह पद पढ़ा गया है।
(२) सूत्रस्थ 'तु' शब्द का प्रयोजन वैकल्पिक विधान की निवृत्ति बताया गया है । अर्थात् पूर्ववर्ती सूत्र “शि न्वौ वा " (१।४।१३) में वा शब्द पठित है । उसकी अनुवृत्ति प्रकृत सूत्र में आएगी, जिसके फलस्वरूप णकारादेश भी विकल्प से प्रवृत्त होगा, जो यहाँ अभीष्ट नहीं है। अतः उसके निरासहेतु 'तु' शब्द का पाठ किया है ।।
[रूपसिद्धि]
१. भवाण्डीनम् । भवान् + डीनम् । प्रकृतसूत्र से ड् के परवर्ती रहने पर पदान्तस्थ नू को ण् आदेश |
२. भवाण्डौकते। भवान् + ढौकते | ढकार के पर में होने पर पदान्तवर्ती नू कोण आदेश ।
३. भवाण्णकारेण । भवान् + णकारेण । णकार के परवर्ती होने पर पदान्तवर्ती ण् आदेश || ५९ |
नू को
६०. मोऽनुस्वारं व्यञ्जने (१।४।१५)
[ सूत्रार्थ]
व्यञ्जन के परवर्ती होने पर पदान्तवर्ती मकार के स्थान में अनुस्वारादेश होता है ।। ६० ।
[दु०वृ० ]
मकारः पुनरन्तो व्यञ्जने परे अनुस्वारमापद्यते । त्वं यासि त्वं रमसे । अन्त इति किम् ? गम्यते । अनुस्वार इति संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः । तेन ‘सम्राट्, सम्राजौ’।। ६० ।