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कातन्त्रव्याकरणम्
छकारादेशाभाव में भवाञ्चशूरः एवं न् के स्थान में केवल 'ञ्' आदेश होने पर भवाञ्शूरः रूप भी बनते हैं ।
पाणिनि के अनुसार तुगागम ( ८।३।३१), छत्व (८|४|६३), श्चुत्व (८।२।४०), च्-लोप (८१४ ६५) होकर उक्त प्रयोग सिद्ध होते हैं । जिन्हें लक्ष्य कर कहा गया है ( द्र०, सि० कौ० इत्यादि) -
अछौ अचछा ञचशा अशाविति चतुष्टयम् । रूपाणामिह तुक्-छत्व-चलोपानां विकल्पनात् ॥
प्रयुक्त होने वाले विधिसूत्रों की संख्या में साम्य होने पर भी पाणिनीय व्याकरण में आदेश तथा आगम दो विधियाँ अवश्य ही गौरवाधायक सिद्ध हो सकती हैं। कातन्त्र में एक-एक ही सूत्रद्वारा न् के स्थान में 'न्च' एवं 'ञ्' आदेश का विधान लाघव-बोधक कहा जा सकता है ।
[विशेष ]
'कुर्वञ्छूर: ' आदि स्थलों में “रष्टवर्णेभ्यो नो णमनन्त्यः” (२।४।१८) से नकार को णकारादेश तथा ‘भवान्च्शूरः' इत्यादि स्थलों में "चवर्गदृगादीनां च” (२।३।४८) से ‘च्’ को ‘ग्’ आदेश नहीं होता है, क्योंकि सूत्र ( शिन्चौ वा ) में द्विवचन के पाठ से आचार्य का यही अभिप्राय माना जाता है, कि यहाँ णकारादेश न हो । “चवर्गदृगादीनां च” (२।३।४८) सूत्र में 'दृग्' शब्द क्विबन्त है | अतः उसके साहचर्य से यहाँ चकार को गकारादेश नहीं होगा, क्योंकि 'भवान्च्' क्विबन्त नहीं है और गकारादेश क्विबन्त में ही होगा । यह आशङ्का नहीं करनी चाहिये कि णत्व न होने से नकार के स्थान में अनुस्वार एवं अकारादेश भी नहीं होंगे, क्योंकि अनुस्वारादेश व्यक्ति है और व्यक्ति सभी कार्यों की बाधिका मानी जाती है । इसीलिये वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा है – “ णत्वं गत्वं च न स्यात् । अनुस्वारो वर्गान्तश्च स्यादेव” इति ।
सूत्रपठित 'वा' शब्द को यहाँ समुच्चयार्थक माना जाता है । यह ज्ञातव्य है कि कलापव्याकरण में विकल्पार्थ के अवबोध - हेतु प्राय: 'नवा' शब्द का ही प्रयोग किया गया है । प्रकृत सूत्र में नकाररहित 'वा' के पाठ से व्याख्याकार उसे समुच्चयार्थक मानते हैं । फलतः नू के स्थान में 'नूच्' तथा 'ञ' दोनों ही आदेश प्रवृत्त होते हैं ।