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कातन्त्रव्याकरणम्
कलाप के वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा है कि उपर्युक्त सूत्रों में (१।४।८,९,१० ) कार के साथ वर्णों का पाठ किया गया है, प्रकृत सूत्र में ल के साथ 'कार' पठित नहीं है | आचार्य का यह विशेष निर्देश ही अनुनासिक लू को सूचित करता है - “कारहीनत्वादनुनासिकम्” (कात० वृ० १|४|११ ) । कलाप के अनुसार उच्चरित वर्ण के स्वरूप का अवबोध कराने के लिए दो प्रत्यय निर्दिष्ट हैं - कार एवं त् ।
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यदि आचार्य को ल्-वर्ण के अनुनासिकरहित स्वरूप का अवबोध कराना अभीष्ट होता तो वे ल् के साथ कार का भी पाठ अवश्य ही करते । न करने का यही उद्देश्य हो सकता है कि उन्हें यहाँ सानुनासिक लकार करना अभीष्ट है, जैसा कि प्रयोगों में भी देखा जाता है । इन दो कार्यों की उभयत्र समानता होने पर भी पाणिनि का सावर्ण्यज्ञान अवश्य ही गौरवाधायक कहा जा सकता है ।
[रूपसिद्धि]
१. भवाँल्लुनाति । भवान् + लुनाति । लकार के पर में रहने पर पदान्तवर्ती न् को अनुनासिक ल् आदेश ।
२. भवाँल्लिखति । भवान् + लिखति । लकार के पर में रहने पर पदान्तवर्ती न् को सानुनासिक ल् आदेश || ५६ |
५७. ज झ ञ-शकारेषु ञकारम् (१।४।१२ )
[ सूत्रार्थ ]
पदान्तवर्ती नकार के स्थान में ञकारादेश होता है । यदि नकार के बाद ज, झ, ञया श वर्ण हो ॥ ५७ ॥
[दु० वृ०]
नकारः पदान्तो ज झ ञ - शकारेषु परतो नकारमापद्यते । भवाञ्जयति, भवाञ्झासयति, भवाञ्ञकारेण, भवाञ्शेते । पदमध्ये चटवर्गादेश इति ज झ ञशकारेषु ञकारविधानम् ॥५७॥
[वि०प०]
जझञ० । ननु शे ञकारम् इति क्रियताम्, जझञानां च वर्गत्वात् तेषु तवर्गश्चटवर्गाविति ञकारः सिद्ध एवेत्याह- पदमध्ये चटवर्गादेश इत्यादि । भवाञ्जयतीत्यादौ पदान्तत्वान्न तेन ञकारः सिध्यतीति भावः ॥ ५७ ॥