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सन्धिप्रकरणे प्रथमः सनापादः कलाप से परवर्ती अधिकांश व्याकरणों में एकमात्रिक अच् की ह्रस्व संज्ञा मानी गई है । जैसे,
चान्द्रव्याकरण - अत्र चाव! ह्रस्वो दीर्घः प्लुत इति त्रिधा भिन्नः, एकमात्रिको हस्वः (वर्णसूत्र ३६,४१)।
जैनेन्द्रव्याकरण - आकालोऽच् प्रदीपः (१।१।१)। हेमशब्दानुशासन – एकद्वित्रिमात्रा ह्रस्वदीर्घप्लुताः (१।१।५)।
मुग्धबोधव्याकरण – आवत् स्वर्घप्लु (सू० ५) । इसमें एकदेश 'स्व' शब्द का ही व्यवहार किया गया है ।
[विशेष]
लोकव्यवहार में ऐसा देखा जाता है कि सज्जन पुरुषों का स्नेह प्रारम्भ में तो अल्प होता है तथा क्रमशः दीर्घ होता जाता है । इसके विपरीत असज्जन (दुष्ट) पुरुषों का स्नेह प्रारम्भ में तो अधिक होता है, परन्तु वह क्रमशः क्षीण (ह्रस्व) होता जाता है । किसी कवि ने कलापव्याकरण के इन ह्रस्व-दीर्घसंज्ञाविधायक सूत्रों को आधार मानकर ऐसा कहा भी है
पूर्वो हस्वः परो दीर्घः सतां स्नेहो निरन्तरम् । असतां विपरीतस्तु पूर्वो दीर्घः परो लघुः॥
(द्र०, टे० ट० टे०, भा०१, पृ० १९२) तु० - नीतिशतक,
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् । दिनस्य पूर्वार्धपराधभिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ॥ (श्लो०६०)।५।
६. परो दीर्घः (१।१।६) [सूत्रार्थ] सवर्णसंज्ञक दो-दो वर्गों में परवर्ती स्वर वर्णों की दीर्घ सञ्ज्ञा होती है ।।६। [दु० वृ०]
द्वयोर्द्वयोः सवर्णसंज्ञयोर्यो यः परो वर्णः स स दीर्घसंज्ञो भवति । आ ई ऊ ऋ लू । ह्रस्वो लघुर्दी| गुरुरित्युच्चारणवशाद् गम्यते । तथा संयोगे सति ह्रस्वोऽपि गुरुः “गुरुमतोऽनृच्छः” (३।२।१९) इति वर्जनाच्च । दीर्घप्रदेशा:- “रो रे लोपं स्वरश्च पूर्वो दीर्घः' (१।५।१७) इत्येवमादयः ।।६।