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सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः
१३७ को भी स्वीकार कर 'तवल्कारः' आदि शब्दरूप निष्पन्न किए जाते हैं। आचार्य शर्ववर्मा तो पूर्ववर्ती अवर्ण के ही स्थान में अल् आदेश तथा परवर्ती लवर्ण का लोपविधान करते हैं । तदनुसार 'तवल्कारः, सल्कारेण' आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं । यहाँ पर भी दो स्वरवर्णों के स्थान में एक स्वरादेश करने की अपेक्षा एक ही स्वर के स्थान में ल्-सहित अ-आदेश करना अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
[विशेष]
उपसर्ग के बाद में यदि टुकारादि धातु हो तो उपसर्गस्थ अवर्ण के स्थान में होने वाले 'अल्' आदेश घटित 'अ' को विकल्प से दीर्घ हो जाता है । जैसे - उपाल्कारीयति, उपल्कारीयति ! वार्तिकवचन इस प्रकार है - "उपसर्गस्य वा तृति धातोरलो दीर्घः"।
[रूपसिद्धि]
१. तवल्कारः। तव + लृकारः (अ+ लू)। पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'अल्' आदेश तथा परवर्ती लवर्ण का लोप |
२. सल्कारेण । सा + लृकारेण (आ + लू)। पूर्ववर्ती (सकारोत्तरवर्ती) आकार के स्थान में अल् आदेश तथा परवर्ती लुवर्ण का लोप ।।२८।
२९. एकारे ऐ ऐकारे च (१।२।६) । [सूत्रार्थ
एकार अथवा ऐकार के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'ए' आदेश तथा परवर्ती 'ए' या 'ऐ' का लोप होता है ।।२९।
[दु० वृ०]
अवर्णः एकारे ऐकारे च परे ऐर्भवति परश्च लोपमापद्यते । तवैषा, सैन्द्री। चकाराधिकारात् क्वचित् पूर्वोऽपि लुप्यते । एवे चानियोगे । अद्येव, इहेव । नियोगे तु अद्यैव गच्छ, इहैव तिष्ठ । स्वस्यादैत्वमीरेरिणोरपि वक्तव्यम् । स्वैरम्, स्वैरी ।।२९।
[दु० टी०]
एकारे०। इह भिन्नविभक्तिनिर्देशो यथासङ्ख्यनिवृत्त्यर्थ इति न वक्तव्यमेव, उक्तमत्र कारणमिति । किन्त्वेकारैकारयोर्तृवर्ण इति षष्ठी वा प्रतिपद्यते । ऐकारस्यै