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सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः [समीक्षा]
पाणिनि के अनुसार 'ऐ' रूप वृद्ध्यादेश अवर्ण तथा ए या ऐ इन दो वर्णों के स्थान में विहित है । जिससे ‘महैश्वर्यम्, खट्वैतिकायनः' आदि शब्द साधु होते हैं । कलाप के अनुसार एकार अथवा ऐकार के परवर्ती रहने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'ऐ' आदेश तथा परवर्ती ए-ऐ का लोप हो जाता है । उक्त की तरह यहाँ भी कलाप की प्रक्रिया में समीचीनता कही जा सकती है, क्योंकि यहाँ एक ही स्वर के स्थान में एक स्वरादेश विहित है।
[विशेष]
१. चकाराधिकार के बल से कहीं पर पूर्ववर्ती अवर्ण का ही लोप हो जाता है । जैसे अद्येव, इहेव ।
२. 'स्व' शब्द के बाद 'ईर - ईरिन्' शब्दों के रहने पर स्व-घटक वकारोत्तरवर्ती 'अ' के भी स्थान में ऐ आदेश अभीष्ट है - "स्वस्यादैत्वमीरेरिणोरपि वक्तव्यम"। जैसे - स्वैरम्, स्वैरिणी।
३. व्याख्याकारों द्वारा भगवद्-विशेषणविशिष्ट पाणिनि, चान्द्र-काश्मीरकश्रीपति - जयादित्य - न्यासकार आदि आचार्यों का उल्लेख द्रष्टव्य है ।
[रूपसिद्धि]
१. तवैषा। तव + एषा (अ+ ए)। वकारोत्तरवर्ती अ के स्थान में ऐ आदेश तथा परवर्ती ए का लोप होता है।
२. सैन्द्री। रा + ऐन्द्री (आ + ऐ)। 'ऐ' के पर में रहने पर पूर्ववर्ती आ के स्थान में 'ऐ' आदेश एवं परवर्ती ऐ का लोप ।।२९।
३०. ओकारे औ औकारे च (१।२१७) [सूत्रार्थ]
ओकार या औकार के पर में रहने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'औ' आदेश तथा परवर्ती ओ-औ का लोप होता है ।।३०।
[दु० वृ०]
अवर्ण ओकारे औकारे च परे और्भवति परश्च लोपमापद्यते । तवौदनम्, सौपगवी। चकाराधिकारादुपसर्गावर्णलोपो धातोरेदोतोः। प्रेलयति, परोखति ।