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सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः
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जिससे य्-व् का व्यवधान उपस्थित होता है और फलतः दीर्घादि सन्धि नहीं
होती ।
[विशेष ]
सूत्र में यू व् के लोप का कोई निमित्त नहीं बताया गया है । पाणिनीय व्याकरण में लोपविधायक “लोपः शाकल्यस्य " ( पा० ८ | ३ | १९) सूत्र में “ 'भोभगो अघोअपूर्वस्य योऽशि" ( पा० ८ | ३ | १७ ) इस सूत्र से 'अशि' पद की अनुवृत्ति की जाती है, अतः निमित्त निश्चित हो जाता है । कलाप सूत्रकार तथा वृत्तिकार आदि ने जो इसकी आवश्यकता नहीं समझी, उससे यह अनुमान किया जा सकता है कि पदान्त में 'य्-व्' आदिष्ट होकर तभी आते हैं जब स्वरवर्ण पर में होता है । किसी स्वर के परवर्ती न होने पर एकारादि के स्थान में अयादि आदेश नहीं होते और इस प्रकार पदान्त में य्-व् वर्ण नहीं मिल पाते । अतः 'स्वरे' यह निमित्तबोधक पद न होने पर भी लोप करने में कोई कठिनाई प्रतीत नहीं होती ।
[रूपसिद्धि]
१ . त आहुः, तयाहुः। तय् + आहुः (य् + आ) । पदान्तवर्ती य् का लोप होने पर प्रकृतिभाव हो जाने के कारण 'त आहुः' रूप निष्पन्न होता है । लोपाभावपक्ष में ‘तयाहुः’।
२. तस्मा आसनम्, तस्मायासनम् । तस्माय् + आसनम् (य् + आ ) । पदान्तवर्ती य् का लोप एवं उसका प्रकृतिभाव होने पर तस्मा आसनम् तथा लोपाभाव-पक्ष में तस्मायासनम् ।
३ . पट इह, पटविह | पटव् + इह (व् + इ ) । पदान्तवर्ती व् का लोप तथा प्रकृतिभाव हो जाने पर पट इह । लोप न होने पर पटविह ।
४. असा इन्दुः, असाविन्दुः । असाव् + इन्दुः (व् + इ ) । पदान्तवर्ती व् का लोप, एवं प्रकृतिभावपक्ष में असा इन्दुः । लोप न होने पर 'असाविन्दु ः ' शब्दरूप सिद्ध होता है ।। ३९ ।
४. एदोत्परः पदान्ते लोपमकारः ( १।२।१७ )
[सूत्रार्थ]
पदान्त ए ओ से परवर्ती अकार का लोप होता है ||४०|