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सन्धिप्रकरणे चतुर्थो वर्गपादः [रूपसिद्धि]
१. तल्लुनाति । 'तत् + लुनाति' इस अवस्था में प्रकृत सूत्र से त् के स्थान में ल् आदेश होता है। इसी प्रकार 'तत् + चरति' में त् के स्थान में च् होने पर तच्चरति, 'तत् + जयति' में त् को ज् आदेश होकर 'तज्जयति', 'तत् + ञकारेण' में त् को ञ् होकर 'तञकारेण' एवं 'तत् + टीकनम्' में त् के स्थान में ट् आदेश, 'तत् + डीनम्' में त् के स्थान में ड् आदेश, 'तत् + णकारेण' में त् के स्थान में ण् आदेश होने पर क्रमशः 'तट्टीकनम्, तड्डीनम्, तण्णकारेण' शब्दरूप सिद्ध होते हैं । परन्तु 'तत् + छादयति' में त् को छ् आदेश, 'तत् + झासयति' में त् को झू आदेश 'तत् + ठकारेण' में त् को ठ् आदेश तथा 'तत् + ढौकते' में त् को द आदेश करने के बाद "पदान्ते धुटां प्रथमः" (३।८।१) से तत्तद्वर्गीय प्रथम वर्ण एवं वर्गीय चतुर्थ वर्गों के परवर्ती रहने पर “वर्गप्रथमाः पदान्ताः स्वरघोषवत्सु तृतीयान्' (१।४।१) से प्रथम वर्ण के स्थान में तृतीय वर्ण आदेश हो जाता है।
[विशेष]
'तद् + जयः, दृशद् + लेखा, ज्ञानबुध् + टीकनम्' में द् तथा ध् वर्गों के होने से यह आशङ्का हो सकती है कि यहाँ प्रथम वर्ण तकार की अनुपस्थिति होने पर पररूप कैसे हो सकता है । पररूप न होने पर अभीष्ट शब्दों की सिद्धि नहीं होगी। इसके समाधान में वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा है कि ऐसे सभी स्थलों में सर्वप्रथम "पदान्ते धुटां प्रथमः" (३।८।१) से तकारादेश होगा और तब प्रकृत सूत्र से पररूप करने पर 'तज्जयः, दृशल्लेखा, ज्ञानभुट्टीकनम्' रूप निष्पन्न होंगे ।। ५०।
५१. चं शे (१।४।६) [सूत्रार्थ]
पदान्तवर्ती तकार के स्थान में चकारादेश होता है शकार के परवर्ती होने पर ।। ५१।
[दु० वृ०]
तकारः पदान्तः शे परे चमापद्यते । तच्श्लक्ष्णः, तच्श्मशानम् । अच्छत्वपक्षे वचनमिदम् ।।५१।