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२१.
सन्धिप्रकरणे चतुर्थी वर्गपादः परिभाषेति केचित् । सत्यम् इत्यादि । ननु तथापि ह्रस्वग्रहणादनित्यत्वं भविष्यति किम् उपधाग्रहणेनेति । नैवम् । निरर्थ के हि 'संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः' (कात० परि० सू० ३२) इत्युपतिष्ठते, न तु सार्थ के ।।५२ ।
[समीक्षा
'क्रुङ् + अत्र, सुगण + अत्र, पचन् + अत्र' इस अवस्था में कलापकार हस्व उपधा वाले 'ङ्--न्' वर्गों का द्वित्व करके क्रुत्र, सुगण्णत्र, तथा पचन्नत्र शब्दरूपों की सिद्धि करते हैं। पाणिनि के अनुसार यहाँ क्रमशः डुट्-णुट-नुट् आगम् होते हैं - "इमो हस्वादचि अमुण् नित्यम्" (८।३।३२)। इन आगमों के टित होने के कारण "आयन्तौ टकिती" (१1१।४६) परिभाषासूत्र, इत्संज्ञाविधायक तथा लोपविधायक सूत्रों की भी आवश्यकता होती है। इसके परिणामस्वरूप पाणिनीय प्रक्रिया में दुरूहता और गौरव सुस्पष्ट है, जब कि कातन्त्रीय प्रक्रिया में सरलता और लाघव ।
यदि सूत्ररचना पर ध्यान दिया जाए तो भी पाणिनि की शब्दावली क्लिष्ट प्रतीत होती है । क्योंकि पहले तो 'ङम्' प्रत्याहार का ज्ञान, तदनन्तर उसके अन्त में 'उट्' पठित होने से उसका ङ्ण न् के साथ अन्वय करके डुट्-णुट्नुट् यह अर्थ करना सरलता का परिचायक नहीं हो सकता ।
[रूपसिद्धि]
'क्रुङ् + अत्र, सुगण + अत्र, पचन् +अत्र' इस स्थिति में पदान्तवर्ती '-णन्' वर्गों का द्वित्व होने पर क्रमशः '
कुत्र, सुगण्णत्र, पचन्नत्र' शब्द सिद्ध होते हैं।। ५२।।
५३. नोऽन्तश्चछयोः शकारमनुस्वारपूर्वम् (१।४।८) [सूत्रार्थ]
पदान्तवर्ती नकार के स्थान में अनुस्वारपूर्वक शकारादेश होता है यदि च-छ वर्ण पर में रहें तो ।।५३।
[दु० वृ०]
नकारः पदान्तश्चछयोः परयोः शकारमापद्यते अनुस्वारपूर्वम् । भवांश्चरति, भवांश्छादयति, भवांश्च्यवते, भवांश्यति । व्यवस्थित-वा-स्मरणात् 'प्रशान् चरति'। एवम् उत्तरत्रापि । तथान्तो विरतिरिति । तेन त्वन्तरसि ।।५३।