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कातन्त्रव्याकरणम् लचटवर्गेषु" (१।४।५) से त् को छ् आदेश तथा "अघोषे प्रथमः" (२।३।६१) से पदान्तवर्ती छ् को च् आदेश करके भी ‘तच्छ्लक्ष्णः, तच्छ्मशानम्' रूपों का साधुत्व दिखाया जा सकता है तो फिर पदान्तवर्ती तकार के स्थान में चकारादेश-विधायक प्रकृत सूत्र को बनाने की क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान इस प्रकार किया जाता है - शकार को छकारादेश विकल्प से होता है (१।४।३)। अतः छकारादेश न होने पर उक्त प्रक्रिया भी नहीं दिखाई जा सकती ।
इसी पक्ष को ध्यान में रखकर आचार्य शर्ववर्मा ने यह सूत्र बनाया है | प्रश्नोत्तर के रूप में यह चर्चा इस प्रकार निबद्ध हुई है
चं शे सूत्रमिदं व्यर्थं यत् कृतं शर्ववर्मणा। तस्योत्तरपदं ब्रूहि यदि वेत्सि कलापकम् ॥१। मूढधीस्त्वं न जानासि छत्वं किल विभाषया।
यत्र पक्षे न च छत्वं तत्र पक्षे विदं वचः॥२॥ कुछ विद्वानों का यह भी विचार है कि यदि "पररूपं तकारो ल-च-टवर्गेषु" (१।४।५) में 'श' को भी पढ़ दिया जाए तो त् को पररूप श् होगा और उस शकार के स्थान में "स्थानेऽन्तरतमः" (कात० परि० सू० १७; का० परि० सू० २४) न्यायवचन के अनुसार "पदान्ते धुटां प्रथमः" (३।८।१) से चकारादेश करके भी ‘तच्श्लक्ष्णः, तच्श्मशानम्' रूप सिद्ध किए जा सकते हैं (द्र०, वं० भा०) ।
[रूपसिद्धि]
१. तलक्ष्णः । तत् + श्लक्ष्णः । शकार को छकार आदेश न किए जाने पर प्रकृत सूत्र से त् को च आदेश ।
२. तश्मशानम् । तत् + श्मशानम् । छकारादेश के अभाव पक्ष में प्रकृत सूत्र से त् को च् आदेश || ५१।
५२. ङणना हस्वोपधाः स्वरे द्विः (१।४।७.) [सूत्रार्थ]
ङ्, ण् तथा न् वर्गों का द्वित्व होता है, यदि वे पदान्तवर्ती हों । उनसे पूर्ववर्ती वर्ण ह्रस्व स्वर हों एवं उनसे पर में स्वर वर्ण हो । यहाँ 'हस्वोपधाः' शब्द से छु