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सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः
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नव्याः -- पदान्तग्रहणमिति वृत्तावन्तग्रहणस्य सामर्थ्यम् उक्तम्, पदादित्यनेनैव साध्यस्य सिद्धिरित्याहुः । वस्तुतस्तु एदोतौ लोप्याकारपूर्वाविति कस्तेन पठ्यताम् । तथा च सति पूर्वसूत्रात् पदान्ताधिकाराद् एदोती पदान्तौ लोप्याकारस्य पूर्वी भवत इति सूत्रार्थो भविष्यति लोपश्च । अत एव सूत्रबलादिति पदान्तग्रहणमित्याह-पदान्त इत्यादि वृत्तिः । हे अम्ब ! इत्यत्रैव विवक्षितश्च सन्धिर्भवतीति वचनात् सन्धिर्भविष्यतीति हेमकरः। तन्न, तन्त्रान्तरेष्वदृष्टत्वात् ।।४०।
[समीक्षा] _ 'ते + अत्र, पटो + अत्र' इस स्थिति में कलाप के निर्देशानुसार पदान्तस्थ एओ से परवर्ती अकार का लोप हो जाता है । वर्तमान लेखनपद्धति के अनुसार उस लुप्त अकार के अवबोधार्थ रोमनलिपि के वर्ण ऽ को वहाँ योजित कर लिखा जाता है - तेऽत्र । इस चिह्न को सम्प्रति पूर्वरूपचिह्न कहते हैं | पाणिनीयव्याकरण के अनुसार "एङः पदान्तादति" (पा० ६।१।१०९) सूत्र द्वारा पदान्तवर्ती ए-ओ तथा अग्रिम ह्रस्व अकार के स्थान में पूर्वरूप एकादेश होता है । अर्थात् अकार वर्ण अपने से पूर्ववर्ती एकार अथवा ओकार में समाहित हो जाता है । उसके अवगमार्थ लगाए जाने वाले 5 चिह्न को पूर्वरूपचिह्न कहा जाता है । इस प्रकार लिपि में समानता होने पर भी साधन-पद्धति में जो अन्तर दृष्ट है, तदनुसार प्रक्रिया-बोध में सरलता की दृष्टि से कलाप-प्रक्रिया को ही सरल कहना होगा, क्योंकि वस्तुतः अकार का वहाँ दर्शनाभाव ही होता है, अतः उसका लोप करना ही अधिक समीचीन है। क्योंकि यहाँ अन्तादिवद्भाव करने की कोई आवश्यकता उपस्थित नहीं होती है"अन्तादिवच्च" (६।१८५) ।
[रूपसिद्धि]
१. तेऽत्र । ते + अत्र (ए+अ)। पदान्तवर्ती ए के बाद आने वाले अकार का लोप।
२. पटोऽत्र | पटो + अत्र (ओ + अ)। पदान्तवर्ती ओ के पश्चात् पठित अकार का लोप ॥४०॥
४१. न व्यञ्जने स्वराः सन्धयाः (१।२।१८) [सूत्रार्थ] व्यञ्जनवर्ण के पर में रहने पर स्वरवर्णों में कोई सन्धि नहीं होती है ।।४१ ।