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कातन्त्रव्याकरणम्
तथा “खरि च” (८|४|५४) से चर्त्वविधि द्वारा 'च्' आदेश करने के बाद ही “शश्छोऽटि” (८।४।६३) से छकारादेश करना पड़ता है । यदि श्चुत्व के बाद ही (चर्त्य से पूर्व) छकारादेश कर लिया जाए, तो भी वर्गीय प्रथम - तृतीय वर्णों से परवर्ती शकार के स्थान में छकारादेश उपपन्न हो जाता है, झय् प्रत्याहारस्थ सभी वर्णों से परवर्ती शुकार के स्थान में नहीं ।
दूसरे यह कि 'अट्' प्रत्याहार में स्वर-य-व-र से अतिरिक्त 'ह' वर्ण भी पठित है । ह के निमित्त होने पर छकारादेश का कोई उदाहरण नहीं देखा जाता । इस प्रकार पाणिनि के सूत्रनिर्देश में स्पष्टता प्रतीत नहीं होती । उसके सम्यग् ज्ञानार्थ पर्याप्त व्याख्यान की आवश्यकता होती है । इसके विपरीत कलापकार शर्ववर्मा के सूत्रनिर्देश में अधिक स्पष्टता के कारण उसमें अर्धलाघव सन्निहित है, जिससे ज्ञानगौरव नहीं हो पाता ।
[विशेष ]
‘वाक्श्लक्ष्णः, तच्श्मशानम्' आदि प्रयोगों में भी कुछ आचार्य शकार के स्थान में छकारादेश करना चाहते हैं । उसे ध्यान में रखकर वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा है – “लानुनासिकेष्वपीच्छन्त्यन्ये” । तदनुसार 'वाक्छ्लक्ष्णः, तच्छ्मशानम्' भी शब्दरूप साधु माने जाएँगे । पाणिनीय व्याकरण में भी कात्यायन का एतादृश वचन है - 'छत्वममीति वाच्यम्' |
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[रूपसिद्धि]
१. वाकुछूरः - वाक्शूरः । वाक् + शूरः । वर्गीय प्रथम वर्ण कू से परवर्ती तथा स्वर ऊ से पूर्ववर्ती श् को छ् आदेश विकल्प से ।
२ . षट् छ्यामाः - षट् श्यामाः । षट् + श्यामाः । वर्गीय प्रथम वर्ण टू से परवर्ती तथा यू से पूर्ववर्ती श् को वैकल्पिक छ् आदेश |
३. तच्छ्वेतम् - तच्श्वेतम् । तत् + श्वेतम् । वर्गीय प्रथम वर्ण तू से परवर्ती तथा व् से पूर्ववर्ती श् को वैकल्पिक छ् आदेश |
४. त्रिष्टुप् छुतम् - त्रिष्टुप् श्रुतम् । त्रिष्टुप् + श्रुतम् । वर्गीय प्रथम वर्ण प् से परवर्ती तथा र् से पूर्ववर्ती श् को वैकल्पिक छू आदेश |
५. वाक्श्लक्ष्णः-वाकुछ्लक्ष्णः। वाक् + श्लक्ष्णः । वर्गीय प्रथम वर्ण क् से परवर्ती तथा ल् से पूर्ववर्ती श् को वैकल्पिक छ् आदेश- ‘वाकुछ्लक्ष्णः’। “लानुनासिकेष्वपीच्छन्त्यन्ये” ।