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सन्धिप्रकरणे चतुर्थो वर्गपादः इससे पाणिनीय व्याकरण के अनुसार सावर्ण्यज्ञान का जो विशेष उद्यम करना पड़ता है, उससे शब्दसिद्धि में कुछ कठिनाई ही उपस्थित होती है, सरलता नहीं । पाणिनीय सूत्रनिर्देश में झय् प्रत्याहार का पढ़ा जाना भी असौकर्य का बोधक है - "अयो होऽन्यतरस्याम्" (पा० ८/४/६२) ।।
[रूपसिद्धि]
१. वाग्धीनः । (वाक्+हीनः)। प्रकृत सूत्र से ह के स्थान में घ आदेश तथा "वर्गप्रथमाः पदान्ताः स्वरघोषवत्सु तृतीयान्" (१/४/१) सूत्र से क् के स्थान में वर्गीय तृतीय वर्ण ग् होने पर 'वाग्धीनः' शब्दरूप निष्पन्न होता है ।
२-५. अज्झलौ (अच् + हलौ), षड्ढलानि(षट् + हलानि), तद्धितम् (तत् + हितम्), ककुब्भासः (ककुप् + हासः)।
इनकी सिद्धि के लिए प्रकृत सूत्र से ह के स्थान में पूर्ववर्ती वर्गीय वर्णों के चतुर्थ वर्ण (झ्, द, ध्, भ) तथा (कात० १/४/१) सूत्र से वर्गीय प्रथम वर्णों के स्थान में तद्वर्गीय तृतीय वर्ण आदेश के रूप में करने पड़ते हैं ।।
[विशेष]
सूत्रकार ने सूत्र में ‘एव' शब्द का उपादान किसी तृतीय मत के निरासार्थ किया है । तृतीय मत प्रायः पाणिनीय आदि व्याकरणों में देखा जाता है | कातन्त्रकार उसे स्पष्टरूप में स्वीकार नहीं करना चाहते | अतः 'एव' पद से उसी का निषेध करना उन्हें अभीष्ट है- ऐसा वृत्तिकार के उल्लेख से समझना चाहिए ।
कुछ विद्वानों के विचार से 'अज्झलौ' प्रयोग में "चवर्गदृगादीनां च" (२/३/ ४८) से चकार के स्थान में गकारादेश हो जाना चाहिए, क्योंकि उसकी प्राप्ति का कोई निषेधक नहीं है । इस प्रकार यदि गकारादेश हो जाए तो प्रकृत सूत्र (तेभ्य एव हकारः पूर्वचतुर्थं न वा- १/४/४) से 'ह' के स्थान में 'घ' आदेश उपपन्न होगा। ऐसी स्थिति में 'अज्झलौ' शब्दरूप सिद्ध नहीं किया जा सकता, उसका साधुत्व अक्षुण्ण रूप में बनाए रखने के लिए विद्वानों का यह उत्तर द्रष्टव्य है -
साहचर्याच्चवर्गस्य क्विबन्तेन दृगादिना। अज्झलादौ न गत्वं स्याज् ज्ञापकं च सिजाशिषोः॥
(द्र०, वं०, भा०)