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सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः
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सवर्णव्यवहार स्वर के लिए ही मान लिया जाए, क्योंकि सवर्णसंज्ञा स्वरवर्णों की ही होती है तो सवर्णसंज्ञक स्वरों से भिन्न अर्थात् असवर्ण स्वरों के परवर्ती होने पर यकारादि आदेश होंगे और व्यञ्जनवर्णों के पर में रहने पर नहीं । इस स्थिति में तो प्रकृत सूत्र की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, परन्तु कुछ विद्वान् असवर्णशब्द का अर्थ करते हैं - स्वभावतः विसदृश (विषम ) । इस अर्थ को स्वीकार कर लेने पर असवर्ण व्यञ्जनवर्ण के भी परवर्ती होने पर यकारादि आदेश प्राप्त हो सकते हैं, उनके वारणार्थ इस सूत्र को बनाना आवश्यक है ।
इस सूत्र के कारण 'देवी + गृहम्' में “इवर्णो यमसवर्णे न च परो लोप्यः " (१।२।८) सूत्र से ईकार का यकारादेश, 'पटु + हस्तम्' में "बमुवर्णः " (१।२ ।९) सूत्र से ‘उ' को ‘व्’ आदेश, 'मातृ + मण्डलम्' में "रम् ऋवर्णः” (१।२।१०) सूत्र सेॠ को र् आदेश, 'जले + पद्मम्' में “ए अयू" (१।२।१२) सूत्र से ए को अय् आदेश, 'रै + धृतिः' में “ऐ आयु" (१।२।१३) सूत्र से ऐ को आयू आदेश, ‘वायो + गतिः’ में " औ आबू " (१।२।१५) सूत्र से औ को आवू आदेश नहीं होता है ।
व्याख्याकारों के अनुसार आचार्य शर्ववर्मा ने इस सूत्र की रचना केवल मन्दबुद्धि वाले शिष्यों के ही अवबोधार्थ की है । अतः इस पर आक्षेप नहीं किया
जा सकता ।
यह भी ध्यातव्य है कि 'पित्र्यम्, गव्यम्, गव्यूति : ' आदि ऐसे शब्दो में भी सन्धि होती है, जिनमें व्यञ्जनवर्ण ही परवर्ती हैं । पाणिनीय व्याकरण में 'र्-अव्' आदेशों के विधानार्थ पृथक् सूत्र बनाए गए हैं। कलापव्याकरण में 'नञा निर्दिष्टमनित्यम्' (काला० परि० ३७) परिभाषा के बल से इस विधि को अनित्य मानकर रकारादि आदेश किए गए हैं ।
[रूपसिद्धि]
समीक्षा के अन्तर्गत प्रस्तुत विवरण के अनुसार 'देवी + गृहम् ' आदि में स्वरसन्धि का निषेध हो जाता है तथा 'पित्र्यम्' (पितृ + यम्), गव्यूतिः (गो + यूतिः) में “ नञ निर्दिष्टमनित्यम्” (काला० परि० ३७) परिभाषा के अनुसार क्रमशः 'रमृवर्णः ' (१।२।१०) से रकारादेश तथा " ओ अबू" (१।२।१४ ) से अवादेश उपपन्न हो जाता है ।। ४१ ।
॥ इति प्रथमे सन्धिप्रकरणे समीक्षात्मको द्वितीयः समानपादः समाप्तः ॥