________________
सन्धिप्रकरणे तृतीयः ओदन्तपादः
१८९ २. कलाप के सूत्र में बहुवचन का निर्देश स्पष्ट है, अतः प्रकृत सूत्र केवल 'अमी' में ही प्रवृत्त होता है, 'अमू' में नहीं । पाणिनि ने "ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम्" (१।१।११) में द्विवचन का उल्लेख किया है । परन्तु “अदसो मात्" (१।१।१२) में नहीं । फलतः उससे ‘रामकृष्णावमू आसाते' में भी प्रगृह्यसंज्ञा करनी पड़ती है । 'अमुकेऽत्र' में प्रगृह्यसंज्ञा न हो- एतदर्थ 'मात्' पद भी पढ़ना पड़ता है | कलाप में द्विवचन तथा बहुवचन शब्द का स्पष्ट उल्लेख है एवं बहुवचन के साथ 'अमी' रूप भी पठित है । जिससे 'अमुकेऽत्र' में प्रकृति नाव होने का अवसर ही नहीं है।
प्रकृतिभाव का विधान न होने पर यहाँ "इवर्णो यमसवर्णे न च परो लोप्यः" (१।२।८) से ई के स्थान में य् आदेश हो जाता । 'अम्यत्र' में अमी' शब्द बहुवचनान्त नहीं है । 'अम' शब्द से 'इन्' प्रत्यय होने पर निष्पन्न 'अमी' शब्द को 'अत्र' के साथ मिलाने पर उक्त सूत्र से यकारादेश हो जाता है ।।
[रूपसिद्धि]
१. अमी अश्वाः । अदस् + जस् । “त्यदादीनाम विभक्तौ" (२।३।२९) से स को अ, “जस् सर्व इः' (२।१।३०) से जस् को इ, “अवर्ण इवणे' ए" (१।२।४५) से द् को म् तथा “एद् बहुत्वे त्वी" (२।३।४२) से ए को ई । 'अमी + अश्वाः ' में प्रकृतिभाव।
२. अमी एडकाः। अदस् + जस् । 'पूर्ववत् 'अमी' रूप सिद्ध | ‘एडकाः' से सम्बन्ध होने पर प्रकृत सूत्र से प्रकृतिभाव ।।४४ |
४५. अनुपदिष्टाश्च (१।३।४) [सूत्रार्थ]
वर्णसमाम्नाय में उपदिष्ट न होने वाले प्लुतों का स्वरों के परवर्ती होने पर प्रकृतिभाव होता है ।।४५।
[दु० वृ०]
ये चाक्षरसमाम्नायविषये व्यक्त्या नोपदिष्टाः, जात्या तु स्वरसंज्ञिताः प्लुतास्ते स्वरे परे प्रकृत्या तिष्ठन्ति । आगच्छ भो देवदत्त अत्र । तिष्ठ भो यज्ञदत्त' इह । दूराह्वाने, गाने, रोदने च प्लुतास्तु लोकतः सिद्धाः ।।४५।।
॥ इति दौर्गसिंह्मां वृत्ती प्रथमे सन्धिप्रकरणे तृतीयः ओदन्तपादः समाप्तः॥