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कातन्त्रव्याकरणम्
न चात्रापि संज्ञात्वाण्णत्वम् इति वाच्यम्, विकल्पपरत्वादक्षस्यौत्वमिति संज्ञायामेवेष्यते । नहि पाणिनेरिदं सूत्रम्, किन्तर्हि वक्तव्यमिति, तेन यत्र पदान्तरस्य सन्निधानाद् रूढ्यर्थस्यान्वययोग्यता, तत्र नायं विधिः, यथा अक्षौहिणी । अतः सेनासामान्यविषयकं श्रीपतिसूत्रं दुष्टमिति बोध्यम् । तथा च भाष्यकृता - " अक्षौहिणी सेनासमूहस्य संज्ञा, अतः संज्ञैवात्र प्रमाणमिति प्रत्याख्यातमिदम्' इति ।।३०।
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[समीक्षा]
शर्ववर्मा के निर्देशानुसार 'तवौदनम्, सौपगवी' आदि पयोगों की सिद्धि के लिए पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'औ' आदेश तथा परवर्ती ओ - औ का लोप हो जाता है । पाणिनि ऐसे स्थलों में अवर्ण तथा ओ या औ दोनों के ही स्थान में औकार रूप वृद्ध्यादेश करते हैं । पूर्वोक्त सूत्रों की तरह यहाँ भी दो स्वरों के स्थान में एक स्वरादेश करने की अपेक्षा एक ही स्वर के स्थान में स्वरादेश करना अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है ।
[[विशेष ]
'परोखति, बिम्बोष्ठः, अद्योम्, सोम्, प्रोषधीयति' आदि शब्दों की सिद्धि के लिए वृत्तिकार ने अनेक वार्त्तिकवचन दिए हैं । जिनसे कहीं अवर्ण का लोप हो जाने के कारण औकारादेश नहीं हो पाता, तो 'अक्षौहिणी' में 'ओ - औ' के परवर्ती न रहने पर भी 'अ' के स्थान में औ आदेश हो जाता है ।
व्याख्याकारों ने अनेक वार्त्तिकवचन दिए हैं - 'इणेधत्योर्न, नामधातोर्वा, ओष्ठोत्वोः समासे वा' इत्यादि ।
[रूपसिद्धि]
१. तवौदनम् । तव + ओदनम् (अ + ओ ) । वकारोत्तरवर्ती 'अ' के स्थान में औ आदेश तथा परवर्ती ओ का लोप ।
२. सौपगवी। सा + औपगवी ( आ + औ) । सकारोत्तरवर्ती आ के स्थान में औ आदेश तथा परवर्ती औ का लोप ।
इसके ‘गङ्गैौघः, सौत्कण्ठ्यम्' आदि भी उदाहरण प्रसिद्ध हैं ||३०|
9. पतञ्जलिप्रणीते महाभाष्ये वचनमिदं नोपलभ्यते ।