________________
सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः यण का विधान एक ही सूत्र में किया है। इससे पाणिनीय व्याकरण के निर्देश में शब्दलाघव अवश्य सन्निहित है, परन्तु अर्थबोध के लिए पर्याप्त प्रयत्न की अपेक्षा होती है । अर्थबोध में सौकर्य की दृष्टि से कलाप का निर्देश अधिक उपयोगी कहा जा सकता है।
[रूपसिद्धि]
१. पित्रर्थः । पितृ + अर्थः (ऋ+अ)। असवर्ण स्वर अ के परवर्ती होने पर ऋ के स्थान में र आदेश तथा परवर्ती अ के लोप का निषेध ।
२. क्रर्थः । कृ + अर्थः (ऋ+अ)। असवर्ण स्वर अ के पर में रहने पर पूर्ववर्ती ऋकार के स्थान में रकारादेश तथा परवर्ती वर्ण के लोप का निषेध । इसके धात्रंशः आदि प्रसिद्ध उदाहरण द्रष्टव्य हैं ।।३३।
३४. लम् लुवर्णः (१।२।११) [सूत्रार्थ]
असवर्ण स्वर के पर में रहने पर लुवर्ण के स्थान में लकारादेश होता है, परन्तु परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता ||३४|
[दु० वृ०] लुवर्णो लम् आपद्यते असवर्णे, न च परो लोप्यः । लनुबन्धः, लाकृतिः ॥३४। [वि० प०]
लम् लु० । लनुबन्धः, लाकृतिः। तृरनुबन्धो यस्येति, लुकारस्येवाकृतिर्यस्येति विग्रहः ।।३४।
[क० च०[
लम् तृ०। लनुबन्यो लाकृतिरिति । ननु कथमत्र विसर्गस्योत्वम् "स्वरादेशः परनिमित्तकः" (काला० परि० १५) इत्यादिना स्थानिवद्भावादेव घोषवतोऽसम्भवात् । नैवम् । योऽनादिष्टात् स्वरात् पूर्वस्तं प्रति स्थानिवद्भावादिति नियमात् । अस्यार्थःआदिश्यते इत्यादिष्टः, न आदिष्टः अनादिष्टः, अनादिष्टश्चासौ स्वरश्चेति अनादिष्टस्वरः, यस्मिन् काले स्वरोऽनादिष्ट आसीत्, तस्मिन्नेव तस्मात् स्वरात् यः पूर्वस्तं प्रति स्थानिवद्भाव इति । यद्येवम् - आदौ लनुबन्ध इति पदं निष्पाद्य पश्चाल्लाकृतिरिति