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कातन्त्रव्याकरणम्
एतेन ‘मधु+अत्र' इति विसन्धिरपि भवति । वध्वासनम् इत्यत्र सन्धिरेव, न समासान्तरङ्गयोरिति समासे विकल्पनिषेधविधानात् । पूर्वोक्तयुक्त्या वकारोऽयमस्वर इति । यवौ पुनरीषत्पृष्टतरौ ।। ३२।
[समीक्षा]
‘मधु + अत्र, वधू + आसनम्' इस स्थिति में कलाप तथा पाणिनीय दोनों ही व्याकरणों के अनुसार असवर्ण स्वर के परवर्ती होने से पूर्ववर्ती उवर्ण के स्थान में वकारादेश होता है । मुख्य अन्तर सूत्ररचना का है, क्योंकि पाणिनि ने एक ही "इको यणचि" (पा०६।१।७७) सूत्र द्वारा चारों इक् के स्थान में यणादेश किया है और कलापकार ने चार सूत्रों द्वारा । एकत्र शब्दलाघव है तो अन्यत्र अर्थलाघव । अधिक विवेचना के लिए सूत्र सं० ३१ की समीक्षा द्रष्टव्य है।
[रूपसिद्धि]
१. मध्वत्र । मधु + अत्र (उ+अ) । असवर्ण स्वर अ के पर में रहने से पूर्ववर्ती उ के स्थान में व् आदेश तथा परवर्ती वर्ण के लोप का निषेध ।
२. वध्वासनम् । वधू + आसनम् (ऊ+आ)। असवर्ण स्वर आ के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती ऊ के स्थान में वकारादेश तथा परवर्ती वर्ण के लोप का निषेध ||३२ ।
३३. रम् ऋवर्णः (१।२।१०) [सूत्रार्थ]
असवर्ण स्वर के परवर्ती होने पर ऋवर्ण के स्थान में रकारादेश हो जाता है और परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता है ।।३३।
[दु० वृ०] ऋवर्णो रम् आपद्यते असवणे, न च परो लोप्यः । पित्रर्थः, क्रर्थः ।।३३। [समीक्षा]
पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों के ही अनुसार 'पितृ + अर्थः' इस स्थिति में ऋकार के स्थान में रकारादेश होता है, परन्तु शर्ववर्मा ने अर्थलाघव का अवलम्बन लिया है - पृथक्-पृथक् सूत्र बनाकर । ऋवर्ण के भी स्थान में रकारादेश-विधायक स्वतन्त्र सूत्र है, जबकि पाणिनि ने ऋकारादि चारों इक् के स्थान में यकारादि चारों