________________
सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः
केवल स्पष्टावबोध के लिए ही समझना चाहिए । यह भी ज्ञातव्य है कि सन्धि अनेकत्र विवक्षानुसार ही होती है। जैसे- 'गो + अजिनम्' इस स्थिति में 'गोऽजिनम्' तथा ‘गवाजिनम्' ये दो रूप देखे जाते हैं । इसी प्रकार 'गो + अक्षः, गो + इन्द्र:' की दशा में गवाक्षः तथा गवेन्द्रः रूप निष्पन्न होते हैं ।
१६३
व्याख्याकारों के कुछ विचार अवश्यमननीय हैं । जैसे - त्रिमुनि में उत्तरोत्तर की प्रामाणिकता, संहिता की नित्य तथा वैकल्पिक प्रवृत्ति आदि ।
[रूपसिद्धि]
१. गावौ । गौ + औ (औ + औ) । असवर्ण औ के पर में रहने पर पूर्ववर्ती औ के स्थान में आव् आदेश होता है तथा परवर्ती औ का लोप नहीं होता । २. गावः | गौ + अस् (औ + अ ) । यहाँ असवर्ण अ के बाद में रहने के कारण पूर्ववर्ती औ के स्थान में आव् आदेश तथा परवर्ती अ के लोप का निषेध || ३८ |
३९. अयादीनां यवलोपः पदान्ते नवालोपे तु प्रकृतिः (१ ।२।१६ )
[सूत्रार्थ]
पदान्तवर्ती अय्-आय्-अव् - आव् आदेशों में विद्यमान य् तथा व् का विकल्प से लोप होता है । लोप होने पर पुनः उनमें कोई स्वरसन्धि नहीं होती । अर्थात् उनकी प्रकृति सुरक्षित रहती है || ३९ |
[दु० वृ०]
अय् इत्येवमादीनां पदान्ते वर्तमानानां यवयोर्लोपो भवति नवा । लोपे तु प्रकृतिः स्वभावो भवति । त आहुः, तयाहुः । तस्मा आसनम्, तस्मायासनम् । पट इह, पटविह | असा इन्दुः, असाविन्दुः । अयादीनामिति किम् ? दध्यत्र, मध्वत्र । पदान्त इति किम् ? नयनम्, लावकः ।। ३९ ।
[दु० टी०]
अयादीनाम्०| अय् आदिर्येषामिति बहुव्रीहिः । न त्वेकार एवादिर्येषाम् आदेशिनामिति । अर्थाद् यवयोरत्र प्रतिपत्तिः, सा च गरीयसीति । अथ यवग्रहणं किमर्थम्, निर्दिष्टानामयादीनां समुदायस्य लोपः स्यादिति, प्रकृतिवचनं च । योषिते