________________
सन्धिप्रकरणे प्रथमः सज्ञापादः स्थान में क-ख वर्गों के परवर्ती होने पर आदेश होता है और जो अर्ध विसर्गसदृश माना जाता है | पाणिनि ने इसका साक्षात् उल्लेख सूत्रों में नहीं किया है । इससे यह सिद्ध होता है कि कलापकार के मत में जिह्वामूलीय एक अर्धमात्रिक व्यञ्जन है, जबकि पाणिनीय व्याख्याकार उसे अर्धविसर्गसदृश कहकर उसकी अर्धार्ध (7) मात्रा ही मानते हैं ।
इस संज्ञासूत्र का कातन्त्रव्याकरण में केवल एक ही विधिसूत्र है १।५।४; फिर 'इत्येवमादयः' यह वचन प्रवाहवश ही कहा गया मानना चाहिए। याज्ञवल्क्यशिक्षा में कवर्ग से पूर्ववर्ती ऊष्म वर्गों को जिह्वामूलीय कहा गया है। वे वज्री माने गए हैं । अर्थात् जैसे प्रहार किया गया वज्र शत्रु से आश्लिष्ट होकर रहता है, वैसे ही 'इष्क्कृतिः इत्यादि में षकार अग्रिम ककार के साथ अत्यन्त संश्लिष्ट होकर रहता है | "जिह्वामूले तु वज्रिणः” (या० शि० ५।९३)। इसमें ७ (९) वर्गों को जिह्वामूलीय स्वीकार किया गया है – “सप्त जिह्वामूलीयाः- ऋ ऋ ऋ ३ इत्यूवर्णः, * क क ख ग घ ङा इति" (या० शि० ५।९३)।
इस प्रकार कलापव्याकरण में यह योगवाह है, जब कि पाणिनीय वैयाकरण इसे अयोगवाह मानते हैं । जिह्वा के मूल में उच्चरित होने वाले वर्ण को जिह्वामूलीय कहते हैं । यदि जिह्वा का मूल वज्र की आकृति वाला हो तो इसे अन्वर्थ कहा जा सकता है ।।१७।
१८. प इत्युपध्मानीयः [१।१।१८] [सूत्रार्थ]
प-फ वर्गों से पूर्ववर्ती विसर्ग के स्थान में होने वाले गजकुम्भ की आकृति वाले वर्ण की उपध्मानीय संज्ञा होती है ।।१८।
[दु० वृ०]
पकार इहोच्चारणार्थः । M इति गजकुम्भाकृतिर्वर्ण उपध्मानीयसंज्ञो भवति । उपध्मानीयप्रदेशाः- “पफयोरुपमानीयं न वा" (१।५।५) इत्येवमादयः ।।१८।
[दु० टी०] con प इति । उपध्मायते उपशब्द्यते इत्युपध्मानीयः ।।१८।