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सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः में एक दीर्घ ऋकारादेश उपपन्न होता है - "अकः सवर्णे दीर्घः" (पा० ६।१।१०१)।
शर्ववर्मा ने पूर्ववर्ती अवर्णादि के स्थान में दीर्घ आकारादि आदेश तथा परवर्ती अवर्णादि का लोप किया है । इस प्रकार पाणिनीय व्याकरण में दो स्वरों के स्थान में तथा कलापव्याकरण में एक ही स्वर के स्थान में दीर्घ आदेश निर्दिष्ट है। इन दो विधियों में कौन सी विधि प्रशस्त है- इसका निर्णय कर पाना यद्यपि अत्यन्त दुष्कर है तथापि इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि स्वर उसे कहते हैं जो उच्चारण में किसी अन्य की अपेक्षा न रखता हो । इससे उसे स्वयं समर्थ माना जाता है - 'स्वयं राजते इति स्वरः'। स्वयं एकाकी समर्थ होने पर दो स्वरों के स्थान में एक स्वरादेश की अपेक्षा एक ही स्वर के स्थान में एक स्वरादेशविधान अधिक समीचीन प्रतीत होता है । यदि यह कहा जाए कि कलापव्याकरण में परवर्ती स्वर का लोप अधिक करना पड़ता है तो वह इसलिए समादरणीय नहीं हो सकता कि पाणिनीय व्याकरण में "एकः पूर्वपरयोः" (पा० ६।१७५) यह अधिकारसूत्र अतिरिक्त करना पड़ता है । कलापव्याकरण में परवर्ती स्वर का लोप करने के लिए अतिरिक्त सूत्र नहीं किया जाता, किन्तु एक ही सूत्र-द्वारा दीर्घ तथा लोप-कार्य निर्दिष्ट हुए हैं।
व्याख्याकारों ने इस सवर्णदीर्घविधि को विकार तथा आदेश माने जाने के सम्बन्ध में कुलचन्द्र, हेमकर तथा श्रीपति आदि के मतों को प्रदर्शित किया है। एक वर्ण के स्थान में उपपन्न होने के कारण इसे कुछ विद्वान् विकार भी कहते हैं । एक वर्ण के स्थान में होने वाली विधि को विकार तथा अधिक वर्णों या धातु - पद आदि के स्थान में होने वाली विधिको आदेश माना गया है । आपिशलि का मत है
आगमोऽनुपघातेन विकारश्चोपमर्दनात् ।
आदेशस्तु प्रसङ्गेन लोपः सर्वापकर्षणात् ॥ कातन्त्रकार ने स्थानी को प्रथमान्त तथा आदेश को द्वितीयान्त रखा है, निमित्त का प्रयोग तो सप्तम्यन्त ही है । पाणिनि ने स्थानी का षष्ठ्यन्त तथा आदेश का व्यवहार प्रथमान्त किया है। कातन्त्रकार की शैली पूर्वाचार्यसम्मत है।