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सन्धिप्रकरणे प्रथमः सञ्जापादः
१०५ न्यवद्भावः सम्भवति, अस्वशब्दोक्तत्वात् (स्वशब्दोक्तस्याविषयत्वात्)।तथाहि, स्वशब्देनोक्तयोर्युष्मदस्मदोरन्तलोपेऽनन्यवद्भावाद् युष्मदस्मद्व्यवहारः क्रियते एवेति ।
वस्तुतस्तु - जयादित्यसिद्धान्त एव युक्तः विभक्तिलोपेऽपि प्रत्ययलोपलक्षणन्यायात् पदत्वमिति "सप्तम्युक्तमुपपदम्" (४।२।२) इत्यत्र टीकायां यदेव साक्षात् सप्तम्यन्तं प्रत्ययलोपलक्षणन्यायाद् वा सप्तम्यन्तमुक्तम् । कथमेतत् सङ्गच्छते, प्रत्यये परे यल्लक्षणं सूत्रं प्राप्नोति प्रकृतेः प्रत्ययलोपेऽपि तद् भवतीत्याह - परिभाषावृक्तायुक्तोऽर्थः। न च संज्ञा प्रत्यये परे विधीयते अपि तु समुदायस्य । न तु पदश्रिता पदसंज्ञाऽवयवाश्रितैवेति वाच्यम्, समुदायादवयवभिन्नत्वाद् इति चेत्, भ्रान्तोऽसि । समुदायस्यापि विधीयमाना सम्प्रति प्रकृतिप्रत्ययावेवाश्रयति, तदतिरिक्तस्य पदत्वेनानुपलभ्यमानत्वात् । अतः प्रत्यये परभूते सति यल्लक्षणं पदसंज्ञाविधिर्वर्तते प्रत्ययसाहित्येन प्रकृतेः प्राप्नोति प्रत्ययलोपे तद्भवतीति घटत एव परिभाषावृत्तावुक्तोऽर्थः, तत्र प्रकृतेरुपलक्षणं समुदायस्यापि भवतीति दिक् ।।२०।
[समीक्षा]
आचार्य शर्ववर्मा ने प्रकृति-प्रत्यय के अर्थवान् समुदाय की पदसंज्ञा की है। यहाँ यद्यपि 'विभक्त्यन्तं पदम्' इतना ही सूत्र बनाने से ईप्सित अर्थ की सिद्धि हो सकती है, तथापि आचार्य ने “पूर्वपरयोरर्थोपलब्धौ पदम्" यह कहकर जो शब्दगौरव किया है, उससे उनका यह अभिप्राय व्यक्त होता है कि प्रकृति और प्रत्यय परस्पर सम्बद्ध होकर ही किसी विशिष्ट अर्थ का निष्पादन करते हैं । कलाप की यह पदसंज्ञा ऐन्द्रव्याकरण तथा वाजसनेयिप्रातिशाख्य के आधार पर की गई है, क्योंकि उन दोनों में पदसंज्ञक सूत्र थे- “अर्थः पदम्"।
पाणिनि ने नाम और आख्यात पदों के अनुसार, सुबन्त और तिङन्त शब्दों की पदसंज्ञा की है- “सुप्तिङन्तं पदम्' (१।४।१४; द्र० ११४।१५-१७)। इस प्रकार कलाप की संज्ञा में पूर्वाचार्यों का अनुसरण स्पष्ट रूप में दृष्ट है, जबकि पाणिनि ने सुबन्त-तिङन्त शब्दरूपों की यादृच्छिक कल्पना की है।
गणरत्नमहोदधिकार वर्धमान के अनुसार सुप्-तिङ्प दो प्रकार के पद मानने वाले आचार्य हैं - पाणिनि, शाकटायन, चन्द्रगोमी, देवनन्दी, भर्तृहरि, वामन, भोज, शिवस्वामि, कात्यायन, पतञ्जलि, भद्रेश्वरसूरि तथा दीपकव्याकरणकर्ता । पाणिनिपूर्व सुप्-तिङ् प्रत्याहारों का प्रयोग दृष्ट न होने से पाणिनि ही इसके प्रथम उद्भावक