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सन्धिप्रकरणे प्रथमः सज्ञापादः
११७ यह ज्ञातव्य है कि पाणिनिपूर्ववर्ती व्याकरण लौकिक - वैदिक उभयविध थे और पाणिनि से परवर्ती प्रायः सभी व्याकरण केवल लौकिक शब्दों का ही साधुत्व बताते हैं । कलाप व्याकरण में वैदिक शब्दों का साधुत्व क्यों नहीं दिखाया गया - इस सम्बन्ध में वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा है -
वैदिका लौकिकज्ञैश्च ये यथोक्तास्तथैव ते।
निर्णीतार्थास्तु विज्ञेया लोकात् तेषामसंग्रहः॥ अर्थात् जो लौकिक शब्दों के साधुत्वज्ञान में पारङ्गत शिष्टजन हैं, वे वैदिक शब्दों का भी साधुत्व अवश्य जानते हैं । उन वैदिक शब्दों का साधुत्व-बोध उन्हीं शिष्टों से कर लेना चाहिए - यह समझकर ही आचार्य शर्ववर्मा ने वैदिक शब्दों के साधुत्वहेतु सूत्र नहीं बनाए ।
यहाँ यह आशङ्का की जाती है कि यदि वैदिक शब्दों का साधुत्व शिष्टव्यवहार से जाना जा सकता है तो लौकिक शब्दों का भी साधुत्व शिष्टव्यवहार से जाना ही जा सकता है और इस प्रकार यदि वैदिक शब्दों के साधुत्व के लिए सूत्र बनाने की कोई आवश्यकता नहीं हो सकती है तो लौकिक शब्दों के साधुत्व के लिए भी सूत्र बनाना आवश्यक नहीं है।
इस प्रश्न का समाधान करते हुए व्याख्याकारों ने कहा है कि वैदिक शब्द अल्प हैं, अतः उनका साधुत्वबोध शब्दप्रमाणक शिष्टजनों से किया जा सकता है, परन्तु लौकिक शब्द अनन्त हैं, उनके साधुत्वज्ञान का सरल और लघु उपाय सत्ररचना (लक्षणशास्त्र) ही हो सकती है। अतः लौकिक शब्दों के साधुत्व के लिए कलापकार ने सूत्र बनाए हैं।
वैदिक शब्दों का साधुत्व न दिखाए जाने के कारण यह वेदाङ्ग नहीं हैऐसा नहीं कहा जा सकता । क्योंकि वेदों में भी अधिकांश वे ही शब्द प्रयुक्त हैं, जिनका प्रयोग लोक में भी होता है। केवल वेद में ही प्रयुक्त शब्दों की संख्या अपेक्षाकृत अत्यन्त अल्प है | दूसरे यह कि वैदिक - परम्परा युग-मन्वन्तर में भी अविच्छिन्न रूप से चलती रहती है, वह कभी सर्वथा विच्छिन्न नहीं होती । इसलिए वैदिक शब्दों का साधुत्वज्ञान भी वैदिक विद्वानों में सुरक्षित बना रहता है, उसे उनके सान्निध्य से प्राप्त किया जा सकता है | इस प्रकार केवल लौकिक शब्दों का ही साधुत्व दिखाने वाले व्याकरण भी वेदाङ्ग सिद्ध होते हैं।