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कातन्त्रव्याकरणम्
[वि० प०]
mप इति । उपपूर्वाद् ‘मा शब्दाग्निसंयोगयोः' (१।२६६) इति, उप समीपे मायते शब्द्यते इति कर्मण्यनीयप्रत्ययः ।।१८।
[क० च०]
प इति । अत्रापि पूर्ववद् व्याख्यानम् । यद्यपि अन्योऽपि उप समीपे मायते, तथापि रूढिवशादस्यैव प्रतीतिरिति । समीप इति पफयोरिति विशेषः ।।१८।
[समीक्षा]
प-फ वर्गों से पूर्व ध्वनित होने वाले वर्ण को उपध्मानीय कहते हैं। पाणिनि ने इसके लिए कोई संज्ञासूत्र नहीं बनाया, और न ही विधिसूत्र में ही उसका स्पष्ट उल्लेख किया । केवल “कुप्वो क४ पौ च" (अ० ८।३।३७) सूत्र की व्याख्या में व्याख्याकार उपध्मानीय शब्द को स्वीकार करते हैं - "कवर्गे पवर्गे च परे विसर्जनीयस्य क्रमाज्जिह्वामूलीयोपध्मानीयौ स्तः" (सि० को०)। कलाप के इस संज्ञासूत्र में व्याख्याकारों ने 'प' से पूर्ववर्ती विसर्ग के स्थान में होने वाले गजकुम्भ-सदृश वर्ण को उपध्मानीय कहा है । सम्भवतः उपध्मानीय के उच्चारण में ओष्ठ्य की आकृति गजकुम्भसदृश प्रतीत होने के कारण व्याख्याकारों ने उसे गजकुम्भाकृति माना है । लिपि में इसके पाँच चिह्न मिलते हैं। जैसे- ७,७,M,,000।
याज्ञवल्क्यशिक्षा में प्रकार के ओष्ठ्य वर्गों के अन्तर्गत उपध्मानीय वर्गों को भी गिनाया गया है - "नव ओष्ठ्याः - उ ऊ ऊ ३ इत्युवर्णः, प-फ-ब-भ-मवकारोपध्मानीया ओकारश्चेति" (या० शि० ५।९३) ।।१८।
१९. अं इत्यनुस्वारः (१११।१९) [सूत्रार्थ] एक बिन्दुरूप वर्ण की अनुस्वार संज्ञा होती है ।।१९। [दु० वृ०]
अकार इहोच्चारणार्थः। - इति बिन्दुमात्रवर्णोऽनुस्वारसंज्ञो भवति । अनुस्वारप्रदेशा:- "मोऽनुस्वारं व्यञ्जने" (१।४।१५) इत्येवमादयः ।।१९।