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कातन्त्रव्याकरणम्
महतो घोषस्य प्रतिषेधमाह - इत्यन्ये | वस्तुतस्तु ईषदर्थे प्रतीत्यन्यथानुपपत्त्या लक्षणया नञो वृत्तिरीषदर्थे मन्तव्या । तथा च -
'अभावश्च निषेधश्च तद्विरोधस्तदन्यथा।
ईषदर्थश्च कुत्सा च नत्राः षट् प्रकीर्तिताः॥इति । इह 'भूतले घटो नास्ति' इत्यभावः प्रतीयते । ‘ब्राह्मणो न हन्तव्यः' इत्यत्र ब्राह्मणहनननिषेधः प्रतीयते । 'अधर्मः' इत्यत्र धर्मविरोधः पापं प्रतीयते । 'तक्रं कौण्डिन्यभिन्नाय दीयताम्' इत्यत्र कौण्डिन्याय दधिदानं प्रतीयते । (अनुदरा कन्या) 'अब्राह्मणोऽयम्' इत्यत्र कुत्सितब्राह्मणः प्रतीयते ।।११।
[समीक्षा]
जिनके उच्चारण में अल्प ध्वनि होती है, उन्हें अघोष कहते हैं- "न विद्यते घोषो ध्वनिर्येषां ते अघोषाः। ईषदर्थेऽत्र नम्"। कलापव्याकरण में अनुशासनसूत्र द्वारा इसे स्वीकार किया गया है, जब कि पाणिनीय व्याकरण में शिक्षा के अनुसार । शिक्षाग्रन्थों में बाह्य प्रयत्न के ११ भेदों में से एक अघोष भी बताया गया है। जिन वर्णों की अघोषसंज्ञा कलापव्याकरण में कही गई है, पाणिनि ने उनके लिए 'खर्' प्रत्याहार का प्रयोग किया है । अघोष- संज्ञक वर्ण १३ हैं - ‘क ख च छ ट ठ त थ प फ श ष स'।
शिक्षाग्रन्थों में प्रयुक्त होने से उक्त १३ वर्णों की यह अघोष संज्ञा प्राचीन है तथा श्वास- उच्छ्वास मात्र के सुनाई पड़ने से किं च नाद - ईषन्नाद के सुनाई न पड़ने से (उच्चारण में वायु के अल्प होने के कारण) यह अन्वर्थ भी है
"त्रयोदशाघोषास्ते क-च-ट-त-पाः , ख-छ-ठ-थ-फाः, शषसाश्चेति" (या० शि० ५।९३)।
१. पाणिनीयसम्प्रदाये नजाः षड् एवं पठ्यन्ते
तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता | अप्राशस्त्यं विरोधश्च नर्थाः षट् प्रकीर्तिताः ॥ (वै० भू० सा० - नार्थनिर्णयः)