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सन्धिप्रकरणे प्रथमः सज्ञापादः [समीक्षा]
जिन वर्णों के उच्चारण में वायु की अधिकता = महाप्राणता रहती है, उन वर्गों की ऊष्मसंज्ञा की गई है। आख्यात प्रकरण में इन्हीं वर्णों की 'शिट' संज्ञा भी शर्ववर्मा ने की है – “शिडिति शादयः" (३।८।३२) । पाणिनि ने इन वर्णों का बोध 'शल्' प्रत्याहार से कराया है । कातन्त्र व्याकरण में ऊष्मसंज्ञा का कहीं भी उपयोग नहीं किया गया है । केवल पूर्वाचार्यकृत संज्ञा के स्मरणार्थ ही इसे शर्ववर्मा ने प्रस्तुत किया है |
प्राचीन ग्रन्थों में कहीं कहीं पर ८ तथा ६ वर्गों की भी ऊष्मसंज्ञा की गई है । जैसे -
ऋक्प्रातिशाख्य- "उत्तरे अष्टावूष्माणः” (१।१०)। इसके अनुसार शकारादि ४ वर्गों के अतिरिक्त अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय वर्गों की भी यह संज्ञा अभीष्ट है । इन वर्गों को ऊष्म क्यों कहते हैं - इसका समाधान उव्वट ने अपने भाष्य में इस प्रकार किया है- “ऊष्मा वायुस्ताधाना वर्णा ऊष्माणः” (१।१०)।
तैत्तिरीयप्रातिशाख्य - “परे षडूष्माणः” (१।९)।
वाजसनेयिप्रातिशाख्य- “अथोष्माणः, शिति षिति सिति हिति" (८।१६, १७)।
अथर्ववेदप्रातिशाख्य- "स्त्रीबहुवचनान्यूष्मान्तानि, स्वरान्तान्यूष्मान्ताबाधानि" (२।२।१७,१०)।
ऋक्तन्त्र- “अथोष्माणः हिति शिति षिति सिति योगवाहाः' (१।२) । नाट्यशास्त्र- “ऊष्माणश्च शषसहाः' (१४।१९)।
आपिशलिशिक्षा- "शादय ऊष्माणः; महति वायौ महाप्राणः, अल्पे वायावल्पप्राणः, साल्पप्राणमहाप्राणता । महाप्राणत्वादूष्मत्वम्" (४।७,८।१६-१९)। इस प्रकार यह संज्ञा अन्वर्थ तथा प्राचीन है ।।१५।
१६. अः इति विसर्जनीयः (१।१।१६) [सूत्रार्थ]
स्वरवर्णों के बाद आने वाले कुमारीस्तनयुगाकृति वर्ण की विसर्जनीय संज्ञा होती है ।।१६।