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कातन्त्रव्याकरणम्
यद्यपि कृत्प्रकरण के ही अन्तर्गत माने जाते हैं, तथापि उक्त वैशिष्ट्य के कारण उन्हें पृथक् पढ़ा जाता है । आचार्य शर्ववर्मा ने कृत्सूत्र नहीं बनाए, कृत्प्रत्ययान्त शब्दों को वृक्षादि शब्दवत् रूढ मानकर उनकी रचना वररुचि कात्यायन ने की है | इससे यह भी कहा जा सकता है कि शर्ववर्मा ने उणादिसूत्र भी नहीं बनाए थे । सम्प्रति दुर्गसिंहविरचित उणादिसूत्र प्राप्त होते हैं। इन सूत्रों पर उनकी स्वोपज्ञ वृत्ति भी है । मद्रास से प्रकाशित पुस्तक में ६ पाद तथा ३९९ सूत्र हैं और वङ्गसंस्करण में ५ पाद तथा केवल २६७ सूत्र | सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयीय सरस्वतीभवन वाले हस्तलेख में तो ४ ही पाद एवं २५३ सूत्र हैं ।
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'विमल सरस्वती के वचनानुसार उणादिसूत्रों के रचयिता वररुचि हैं, परन्तु यह कथन प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि दुर्गसिंह ने ग्रन्थारम्भ में किसी दूसरे कर्ता का नामोल्लेख नहीं किया है। उन्होंने केवल उणादि के अभिधान की ही बात कही है -
नमस्कृत्य गिरं ( शिवम् ) भूरि शब्दसन्तानकारणम् । उणादयोऽभिधास्यन्ते
बालव्युत्पत्तिहेतवे ॥
१९८८ ई० में प्रकाशित कलापव्याकरणम् में मद्रास - संस्करण का ही अधिक उपयोग किया गया है, लेकिन कुछ पाठ बँगला - संस्करण से भी लिए गए हैं। इन सूत्रों में आए २५५ प्रत्यय तथा प्रत्येक का एक-एक उदाहरण भी कातन्त्रव्याकरणविमर्शः तथा कलापव्याकरणम् ( पृ० १४७-५४) में संकलित किया गया है। इसके अनेक हस्तलेख भी प्राप्त होते हैं । 'कुलटा - तस्कर छात्र -मुख' आदि शब्दों की असाधारण साधनप्रक्रिया द्रष्टव्य है | २५५ प्रत्ययों में १२ अनुबन्ध तथा २५ लिङ्गगणों की योजना की गई है | ११ सौत्र धातुएँ भी प्रयुक्त हुई हैं । उणादि के विस्तृत अध्ययन के लिए डॉ० धर्मदत्त चतुर्वेदी तथा आचार्य लोसङ् नोर्बू शास्त्री द्वारा सम्पादित कातन्त्रोणादिसूत्र द्रष्टव्य है ।
कातन्त्र-लिङ्गानुशासन
जिससे पुंस्त्व-स्त्रीत्व और नपुंसकत्व धर्म जाना जाए, उसे लिङ्ग कहते हैं । प्रत्येक शब्द के साथ पुंस्त्व आदि लिङ्ग का नान्तरीयक संबन्ध होता है | अतः
१. उणादिस्फुटीकरणाय वररुचिना पृथगेव सूत्राणि प्रणीतानि ( रूपमाला - कृदन्तमाला ३।४।७५)।