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कातन्त्रव्याकरणम्
था । इसके अतिरिक्त अङ्ग-कलिङ्ग-उत्कल-राजस्थान-आन्ध्र आदि प्रदेश भी इसके प्रयोगस्थल रहे हैं।
भारत से बाहर तिब्बत-नेपाल-श्रीलङ्का आदि देशों में भी इसके प्रयोग के अनेक प्रमाण देखे जाते हैं।
९. विपुल वाङ्मय-लक्षित वैशिष्ट्य
इसका वाङ्मय शारदा-वङ्ग-उत्कल-ग्रन्थ-देवनागरी लिपियों में उपलब्ध होता है । वङ्ग तथा देवनागरी लिपियों में अनेक ग्रन्थ मुद्रित हुए हैं । दुर्गवृत्ति - कातन्त्ररूपमाला आदि ४० से भी अधिक मुद्रित ग्रन्थ प्राप्त होते हैं | अहमदाबादजयपुर-जोधपुर-उज्जैन-बीकानेर-वाराणसी आदि में तीन सौ से भी अधिक हस्तलेख सुरक्षित हैं । १२ ग्रन्थों का तिब्बतीभाषा में अनुवाद प्राप्त है एवं २३ से भी अधिक टीकाएँ तिब्बतीभाषा में लिखी गई हैं । मूल अंशों की पूर्ति के लिए आचार्यों ने कातन्त्रपरिशिष्ट-कातन्त्रोत्तर-कातन्त्रच्छन्द प्रक्रिया आदि ग्रन्थों की बाद में रचना की है।